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सरहुल पर्व ( Sarhul festival ) 2025 - Famous Festival of Jharkhand State | All About Sarhul Festival In Detailed | Jharkhand Circle - Jharkhand Circle

सरहुल पर्व ( Sarhul festival ) 2025 – Famous Festival of Jharkhand State | All About Sarhul Festival In Detailed | Jharkhand Circle

Akashdeep Kumar
Akashdeep Kumar - Student
13 Min Read
All about Sarhul Festival of Jharkhand
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सरहुल पर्व ( Sarhul festival ) को, मैं  बचपन  से देखता आ रहा हूँ क्योकि मैं झारखण्ड से जो  ठहरा। आइये आज के इस  पोस्ट में झारखण्ड का बहुत प्रिय पर्व सरहुल के बारे में जानते है। 

सरहुल पर्व का परिचय – Introduction to Sarhul festival

सरहुल को ‘बाहा’ भी कहा जाता है। यह आदिवासी-सरना आदि धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा त्योहार है। मुंडा, खड़िया, संताल, हो, उराँव आदि इसे पूरे उत्साह और उमंग के साथ मनाते हैं। कुडुख में इसे खद्दी कहा जाता है। खद्द का अर्थ बच्चा होता है। इस कारण इसे बच्चों का त्योहार भी कहते हैं। सरहुल के बाद ही खेतों में बीज का रोपण किया जाता है। संताली इसे बाहा के रूप में मनाते हैं। खड़िया में इसे जाँकोर कहा जाता है। इस तरह एक पर्व के कई नाम हैं। आदिवासी समाज का यह सबसे बड़ा पर्व है। सरहुल के दिन तो राँची में लाखों आदिवासी जुटते हैं, नाचते हैं, गाते हैं।

सरहुल पर्व 2025 में कब मनाया जायेगा ? – In 2025, When Sarhul festival Will be Celebrated ?

सरहुल पर्व 2025 में 1 अप्रैल 2025 ( 1 April, 2025) को  मनाया जायेगा।

सरहुल पर्व कब मनाया जाता है ? – When Sarhul festival is Celebrated ?

 यह चैत माह यानी बसंत ऋतु में मनाया जाता है। इसलिए यह वसंतोत्सव का, फूलों का और जंगल के फिर से खिल उठने के पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। इस महान्प र्व को धरती पूजा (खखेल वैज्ञा) भी कहते हैं। इस पर्व में मुख्य रूप से धरती माँ एवं सूर्य को बंधन में बाँधा जाता है। प्रतीक रूप में पहान एवं पहनाइन को मानते हैं। इसी कारण सरहुल पूजा के पहले ये कोई भी नया फल-फूल नहीं खाते हैं। सरहुल पूजा में धरती माँ और सूर्य भगवान् के साथ पुरखों के नाम से भी चढ़ाया जाता है। परंपरा के अनुसार वैवाहिक संस्कार की रस्म पूरी होने के बाद ही प्रजनन क्रिया होती है। उसी प्रकार धरती माता, जो जगत् जननी हैं, उनका हर वर्ष एक रस्म के अनुसार वैवाहिक संस्कार किया जाता है। यह संस्कार है सरहुल पूजा। इसके बाद ही वंश बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि धरती में नए बीज लगते हैं। इसके बाद ही नए फल-फूल पत्ते का सेवन किया जाता है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।

सरहुल पर्व कहाँ-कहाँ मनाया जाता है ? – Where is Sarhul festival celebrated ?

झारखंड में आदिवासियों का सबसे प्रमुख पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व का नाम सरहुल है, और इसे झारखंड के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों ओडिशा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में भी बड़े जोश के साथ मनाया जाता है। सरहुल के दौरान प्रकृति की पूजा की जाती है, जो इस पर्व की प्रमुख परंपरा है। इसके साथ ही, लोग इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य भी करते हैं, जो इस त्योहार की रौनक को और बढ़ा देता है। सरहुल का पर्व आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है और इसे मनाते समय वे अपनी संस्कृति और परंपराओं का विशेष ध्यान रखते हैं।

सरहुल पर्व की तैयारी कितने दिन पहले से शुरू होती है ? – How many days in advance does the preparation for Sarhul festival begin ?

इस पर्व की तैयारी भी महीने भर पहले शुरू हो जाती है। साफ-सफाई के साथ घरों की लिपाई-पुताई भी होने लगती है। जैसे जंगल खिल उठते हैं, वैसे ही घरों को सजाया-सँवारा जाता है। प्रकृति उल्लास पहाड़ से लेकर घरों तक दिखाई देने लगता है। इस मौके पर नए बेटी-दामाद को भी बुलाया जाता है। दूसरे दिन समधी-समधन को भी बुलाने की प्रथा है। खाने में मुख्य व्यंजन डुबकी है, जो उरद की बड़ी की तरह बनता है। इसके अलावा छिलका भी प्रचलित है।

फूलों का त्योहार है : सरहुल – Festival of flowers: Sarhul

सरहुल मुख्यत: फूलों का त्योहार है | पतझड़ के बाद पेड़ों की टहनियों पर नये-नये पत्ते एवं फूल खिलते हैं | साल के पेड़ों पर खिलने वाले फूलों का सरहुल में विशेष महत्व होता है | चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को शुरू होने वाला यह प्रकृति पर्व चार दिनों तक यानी चैत्र पूर्णिमा के दिन तक चलता है.

सरहुल पर्व कितने दिन तक मनाया जाता है ? – For how many days is Sarhul festival celebrated ?

आदिवासियों का सबसे बड़ा पर्व सरहुल चार दिनों तक बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, और हर दिन अलग-अलग परंपराओं का पालन किया जाता है। सभी लोग इन परंपराओं का पूरी श्रद्धा से पालन करते हैं।

पहले दिन, सरहुल की शुरुआत में, मछली के अभिषेक किये हुए जल को घर में छिड़का जाता है। इस पवित्र जल से घर को शुद्ध किया जाता है और शुभकामनाएं प्राप्त की जाती हैं।

दूसरे दिन, सरहुल के पर्व का दूसरा दिन उपवास का होता है। इस दिन, गांव का पुजारी गांव के हर घर की छत पर साल के फूल रखता है, जो प्रकृति की पूजा का प्रतीक होता है। यह उपवास और फूल रखने की परंपरा गांव के सभी लोग मानते हैं।

तीसरे दिन, सरहुल के तीसरे दिन गांव का पाहन (पुजारी) सरना स्थल पर सरई के फूलों की पूजा करता है। इस दिन पाहन उपवास रखता है और मुर्गी की बलि दी जाती है। बलि के बाद चावल और मुर्गी का मांस मिलाकर खिचड़ी बनाई जाती है, जिसे सूड़ी कहा जाता है। यह सूड़ी पूरे गांव में प्रसाद के रूप में वितरित की जाती है, जिससे सभी लोग इस प्रसाद का आनंद लेते हैं।

चौथे दिन, पूजा के चौथे और अंतिम दिन गिड़ीवा नामक स्थान पर सरहुल के फूल का विसर्जन किया जाता है। इस दिन, फूलों को जल में प्रवाहित करके पूजा की समाप्ति की जाती है। यह विसर्जन प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।

इस तरह, चार दिनों तक चलने वाला सरहुल पर्व पूरे उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है, जिसमें हर दिन की अपनी एक विशेष परंपरा और महत्व होता है।

सरहुल पर्व  कैसे मनाते हैं ? – How Sarhul festival is Celebrated ?

सरहुल के दिन यानी पहले उपवास के दूसरे दिन पहान नहा-धोकर तैयार हो जाता है। बाजे-गाजे के साथ गाँव के बुजुर्ग भी पहान के साथ रहते हैं। पूजा-अर्चना समय नृत्य में सिर्फ पूजा वाद्य का प्रयोग होता है। पूजा में अक्षत यानी अरवा चावल, सिंदूर, धूप, दीया, सकाई, नया सूप, चाकू, अरवा सूत, नया तावा, चावल आटा, बलि के लिए मुरगा-मुरगी इसमें रंगुआ ग्राम देवता के लिए व सफेद सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए तीसरा काला वन देवता व जल देवता के लिए फूल के रूप में साल के नए फूल एवं नई पत्ती को सम्मानपूर्वक तोड़कर लाते हैं। इस पर शुद्ध जल का छिड़काव किया जाता है। पूजा में चढ़ावा के लिए जो पकवान बनाए जाते हैं, उन्हें पहान द्वारा हाथ से निकाला जाता है। इसके बाद पूजा आरंभ होती है। मुरगे की बलि दी जाती है। बाद में इसका भोग लगाया जाता है। इसी क्रम में दो घड़ा पानी को भी, जो पहले दिन रखा गया था, जाँचा जाता है। घड़े का पानी यदि सूखा है या कम हुआ है तो यह समझा जाता है कि इस बार बारिश कम होगी। यदि नहीं सूखा है तो यह समझा जाता है कि बारिशअच्छी होगी।

सरहुल पर्व  का अगला दिन फूलखोंसी 

सरहुल के बासी दिन यानी दूसरे दिन फूलखोंसी होती है। पहान सूप में अक्षत एवं सखुआ फूल लेकर साथ में पहनाइन भी पूजार छेदवाला घड़ा लेकर साथ-साथ पानी की धार गिराते हुए चलते हैं। प्रत्येक घर में वे क्रमशः घूमते हैं एवं दरवाजे के ऊपर भी फूल खोंसते जाते हैं। गृहस्वामिनी द्वारा पहान एवं पुजार को सम्मानपूर्वक चटाई पर बैठाया जाता है। इसके बाद पाँव धोया जाता है। तेल एवं सिंदूर का टीका लगाया जाता है। तब गृहस्वामिनी क्रमशः पूजा सूप एवं घड़े पर भी टीका लगाती है। इसके बाद नए सूप में चावल के साथ कुछ दक्षिणा देती है। पुनः उसी में फूल खोंसती है। इसके बाद पहान ईश्वर को भक्ति भाव से याद करते हैं, पोनोमोसोर धर्मेश उनके परिवार को सुख- समृद्धि दें।

साल फूल की महिमा 

पहान द्वारा दिया हुआ फूल बहुत अच्छी तरह किसी साफ कपड़े में बाँधकर हिफाजत से रखा जाता है। जेठ या वैसाख के महीने में धान के बीजों को खेत में बुआई के लिए उसे निकालते हैं। तब इस फूल को ताँबा पैसा जिसे शुभ माना जाता है, इसको गोबर एवं वह फूल-अक्षत, जो पहान के हाथों फूलखोंसी के दिन दिया गया था, इसको लेकर ईश्वर को याद किया जाता है। इसके बाद पहला बीज निकाला जाता है, अच्छी फसल हो। जब तक फूलखोंसी का कार्यक्रम पूरा नहीं हो जाता, सरना माँ अपना स्थान ग्रहण नहीं कर लेती, तब तक किसी भी प्रकार के मांस का सेवन वर्जित रहता है।

सरहुल के एक दिन पूर्व – केकेंडा खोदने की परंपरा

सरहुल के एक दिन पूर्व उराँव जनजाति के बीच केकड़ा खोदने की परंपरा है।जिस प्रकार वर-वधू के बीच विवाह के पूर्व अपने पूज्य पूर्वजों को साक्ष्य मानकार दांपत्य जीवन का संकल्प लिया जाता है, सरहुल के समय संभवत: प्रथम आदि मानव दंपती के रूप में अवतरित सिरा-सिता नाले में केकड़े बिल में निवासित पूर्वजों को सरहुल जैसे सूर्य और धरती के विवाह के अवसर पर उन्हें संभवत: साक्ष्य बनाया जाता है, जिनका प्रतीक केकड़ा है। खोद निकालने के बाद केकड़े को रस्सी से बाँधकर चूल्हे के ऊपर लटका दिया जाता है और बीज के साथ मसलकर उसे अच्छी सृष्टि की कामना करते हुए खरीफ बोआई के साथ खेतों में बिखेर दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह पर्व लगभग एक माह तक अलग-अलग गाँवों और अलग-अलग तिथि को मनाया जाता है। इस भिन्नता का कारण यह बतलाया जाता है कि प्राकृतिक आपदाओं के चलते कई गाँवों में इसे आगे-पीछे दिन तारीख तय करके त्योहार मनाने की परंपरा शुरू हुई, जोआज तक प्रचलित है। इसका दूसरा कारण है कि एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के सरहुल में भाग ले सकें।

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यदि आप झारखंड के सरहुल पर्व का असली आनंद लेना चाहते हैं, तो सरहुल के दिनों में रांची आ जाइए। यह अनुभव आपके जीवन भर की यादों में शामिल हो जाएगा और आप इस पर्व को कभी नहीं भूल पाएंगे। आपकी इस पोस्ट के बारे में क्या राय है, हमें कमेंट में बताइए। अगर आप झारखंड से संबंधित और भी पोस्ट पढ़ना चाहते हैं, तो हमारे पेज ‘Jharkhand Circle’ को फॉलो करें।

जोहार !

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By Akashdeep Kumar Student
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जोहार ! मेरा नाम आकाशदीप कुमार है और मैं यहाँ झारखंड राज्य से संबंधित लेख लिखता हूँ | मैं आपका स्वागत करता हूँ jharkhandcircle.in पर, यहाँ आपको झारखंड राज्य से जुड़ी सभी जानकारियाँ मिलेंगी। जैसे कि Daily Top News of jharkhand, Jobs, Education, Tourism और Schemes। यह साइट केवल झारखंड राज्य को समर्पित है और मेरा लक्ष्य है कि आपको झारखंड राज्य की सभी जानकारियाँ एक ही स्थान पर मिलें। धन्यवाद।
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