प्राचीन काल में झारखंड ( Jharkhand in ancient times ) को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया गया था। ये विभाजन सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे। प्रत्येक भाग अपनी विशिष्ट पहचान और सांस्कृतिक धरोहर को संजोए हुए था। इस क्षेत्र की अद्वितीयता और विविधता का प्रतिबिंब इन चार भागों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इन भागों का विभाजन न केवल प्रशासनिक दृष्टि से था, बल्कि इनमें रहने वाले लोगों की जीवनशैली, परंपराएं और रीति-रिवाज भी अलग-अलग थे, जो झारखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं।
मौर्य काल में झारखण्ड
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मौर्य काल के दौरान झारखण्ड क्षेत्र का महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक महत्व था। यह क्षेत्र दक्षिण भारत की ओर जाने वाले महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग का हिस्सा था, जो मगध से होकर गुजरता था। इस प्रकार, मौर्यकालीन झारखण्ड न केवल व्यापारिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, बल्कि यहाँ की शासन प्रणाली और प्राकृतिक संसाधनों के कारण भी इसका महत्त्व था।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इस क्षेत्र को कुकुट/कुकुटदेश नाम से इंगित किया गया है। कौटिल्य के अनुसार कुकुटदेश में गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली स्थापित थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने आटविक नामक एक पदाधिकारी की नियुक्ति की थी, जिसका उद्देश्य जनजातियों का नियंत्रण, मगध साम्राज्य हेतु इनका उपयोग तथा शत्रुओं से इनके गठबंधन को रोकना था। इन्द्रनावक नदियों की चर्चा करते हुए कौटिल्य ने लिखा है कि इन्द्रनावक की नदियों से हीरे प्राप्त किये जाते थे। इन्द्रनावक संभवतः ईब और शंख नदियों का इलाका था।चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में सेना के प्रयोग हेतु झारखण्ड से हाथी मंगाया जाता था।
अशोक
अशोक के 13वें शिलालेख में समीपवर्ती राज्यों की सूची मिलती है, जिसमें से एक आटविक/आटव/आटवी प्रदेश (बघेलखण्ड से उड़ीसा के समुद्र तट तक विस्तृत) भी था और झारखण्ड क्षेत्र इस प्रदेश में शामिल था। अशोक का झारखण्ड की जनजातियों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण था। अशोक के पृथक कलिंग शिलालेख-II में वर्णित है कि – ‘इस क्षेत्र की अविजित जनजातियों को मेरे धम्म का आचरण करना चाहिए, ताकि वे लोक व परलोक प्राप्त कर सकें।’ अशोक ने झारखण्ड में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु रक्षित नामक अधिकारी को भेजा था।
मौर्योत्तर काल में झारखण्ड
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मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में अपने-अपने राज्य स्थापित किये। इसके अलावा भारत का विदेशों से व्यापारिक संबंध भी स्थापित हुआ जिसके प्रभाव झारखण्ड में भी दिखाई देते हैं।
★ सिंहभूम से रोमन साम्राज्य के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिससे झारखण्ड के वैदेशिक संबंधों की पुष्टि होती है।
★ चाईबासा से इण्डो-सीथियन सिक्के प्राप्त हुए हैं।
★ राँची से कुषाणकालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र कनिष्क के प्रभाव में था।
गुप्त काल में झारखण्ड
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गुप्त काल भारतीय इतिहास का एक ऐसा दौर है जिसे सांस्कृतिक उन्नति और विकास की दृष्टि से अभूतपूर्व माना जाता है। इस युग को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा गया है, क्योंकि इस समय में कला, साहित्य, विज्ञान, और धार्मिक संस्थाओं में असाधारण प्रगति हुई। गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में संस्कृति और सभ्यता का ऐसा उत्कर्ष हुआ कि उसके प्रभाव और योगदान को आज भी भारतीय समाज में देखा जा सकता है।
विशेष रूप से, झारखंड के हजारीबाग जिले के मदुही पहाड़ पर गुप्तकालीन पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिर इस सांस्कृतिक विरासत के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। ये मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से अद्वितीय हैं और उस समय की कला और धार्मिक प्रवृत्तियों का सजीव प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। पत्थरों से निर्मित इन मंदिरों की निर्माण शैली और उनकी भव्यता गुप्तकालीन वास्तुकला की उत्कृष्टता को दर्शाती है।
इसके अलावा, झारखंड में प्रचलित मुण्डा, पाहन, महतो तथा भंडारी जैसी सामाजिक प्रथाओं का उद्भव भी गुप्तकाल में ही हुआ माना जाता है। मुण्डा प्रथा में समाज का प्रमुख व्यक्ति होता है जो सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करता है। पाहन प्रथा में समुदाय के पुरोहित की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जो धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करता है। महतो प्रथा में ग्राम स्तर पर प्रशासनिक कार्यों का संचालन होता है, और भंडारी प्रथा में सामाजिक और आर्थिक कार्यों का प्रबंधन शामिल होता है।
गुप्तकालीन समाज की इन विशेषताओं से यह स्पष्ट होता है कि इस काल में सामाजिक संरचना और धार्मिक संस्थाओं का गहरा विकास हुआ। इस प्रकार, गुप्त काल भारतीय संस्कृति के विकास का एक ऐसा स्वर्णिम युग था जिसमें न केवल कला और साहित्य की अद्वितीय उन्नति हुई बल्कि सामाजिक और धार्मिक ढांचे में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन और विकास देखा गया। इस काल की विरासत और योगदान आज भी भारतीय समाज और संस्कृति में गहरे रचे-बसे हैं, जो इस युग को स्वर्णयुग के रूप में मान्यता दिलाते हैं।
समुद्रगुप्त
गुप्त वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक समुद्रगुप्त था। इसे भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है। इसके विजयों का वर्णन प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद प्रशस्ति) में मिलता है। प्रयाग प्रशस्ति के लेखक हरिसेण हैं। इन विजयों में से एक आटविक विजय भी था। झारखण्ड प्रदेश इसी आटविक प्रदेश का हिस्सा था। इससे स्पष्ट होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में झारखण्ड क्षेत्र उसके अधीन था। समुद्रगुप्त ने पुण्डवर्धन को अपने राज्य में मिला लिया, जिसमें झारखण्ड का विस्तृत क्षेत्र शामिल था। समुद्रगुप्त के शासनकाल में छोटानागपुर को मुरूण्ड देश कहा गया है।समुद्रगुप्त के प्रवेश के पश्चात् झारखण्ड क्षेत्र में बौद्ध धर्म का पतन प्रारंभ हो गया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय
चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिन्हें ‘विक्रमादित्य’ के नाम से भी जाना जाता है, का प्रभाव झारखण्ड प्रदेश पर भी देखा जा सकता है। उनके शासनकाल के दौरान, चीनी यात्री फाह्यान 405 ईस्वी में भारत आए थे और उन्होंने झारखण्ड क्षेत्र का उल्लेख ‘कुक्कुटलाड’ के रूप में किया है।
गुप्तकालीन पुरातात्विक अवशेषों की बात करें तो, झारखण्ड में इसके कई प्रमाण मिलते हैं। उदाहरण के लिए, हजारीबाग जिले में मदुही पहाड़ पर पत्थरों को काटकर बनाए गए चार मंदिर मौजूद हैं। कोडरमा जिले के सतगावां क्षेत्र में भी मंदिरों के अवशेष पाए गए हैं, जो उत्तर गुप्त काल से संबंधित माने जाते हैं। इसके अलावा, राँची जिले के पिठोरिया में एक पहाड़ी पर स्थित कुआँ भी गुप्तकालीन समय का महत्वपूर्ण अवशेष है।
इन सभी पुरातात्विक अवशेषों से यह स्पष्ट होता है कि गुप्त काल के दौरान झारखण्ड क्षेत्र में भी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ था, और यह क्षेत्र उस समय के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक था।
गुप्तोत्तर काल में झारखण्ड
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शशांक
गौड़ (पश्चिम बंगाल) का शासक शशांक इस काल में एक प्रतापी शासक था। शशांक के साम्राज्य का विस्तार सम्पूर्ण झारखण्ड, उड़ीसा तथा बंगाल तक था। शशांक ने अपने विस्तृत साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए दो राजधानियाँ स्थापित की:-
1. संथाल परगना का बड़ा बाजार
2. दुलमी
प्राचीन काल के शासकों में यह प्रथम शासक था जिसकी राजधानी झारखण्ड क्षेत्र में थी। शशांक शैव धर्म का अनुयायी था तथा इसने झारखण्ड में अनेक शिव मंदिरों का निर्माण कराया। शशांक के काल का प्रसिद्ध मंदिर वेणुसागर है जो कि एक शिव मंदिर है। यह मंदिर सिंहभूम और मयूरभंज की सीमा क्षेत्र पर अवस्थित कोचांग में स्थित है।
शशांक ने बौद्ध धर्म के प्रति असहिष्णुता की नीति अपनायी, जिसका उल्लेख ह्वेनसांग ने किया है। शशांक ने झारखण्ड के सभी बौद्ध केन्द्रों को नष्ट कर दिया। इस तरह झारखण्ड में बौद्ध-जैन धर्म के स्थान पर हिन्दू धर्म की महत्ता स्थापित हो गयी।
हर्षवर्धन
वर्धन वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक हर्षवर्धन था। इसके साम्राज्य में काजांगल (राजमहल) का कुछ भाग शामिल था। काजांगल (राजमहल) में ही हर्षवर्धन ह्वेनसांग से मिला। ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में राजमहल की चर्चा की है।
” प्राचीन काल में झारखण्ड ” से संबंधित अन्य तथ्य
◉ हर्यक वंश का शासक बिंबिसार झारखण्ड क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहता था।
◉ नंद वंश के समय झारखण्ड मगध साम्राज्य का हिस्सा था।
◉ नंद वंश की सेना में झारखण्ड से हाथी की आपूर्ति की जाती थी। इस सेना में जनजातीय लोग भी शामिल थे।
◉ झारखण्ड में दामोदर नदी के उद्गम स्थल तक मगध की सीमा का विस्तार माना जाता है।
◉ झारखण्ड के ‘पलामू’ में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा निर्मित मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
◉ कन्नौज के राजा यशोवर्मन के विजय अभियान के दौरान मगध के राजा जीवगुप्त द्वितीय ने झारखण्ड में शरण ली थी।
◉ 13वीं सदी में उड़ीसा के राजा जय सिंह ने स्वयं को झारखण्ड का शासक घोषित कर दिया था।