History of Dombari Buru – डोम्बारी बुरु की कहानी ( Jharkhand Jallianwala Bagh ) | Bhagwan Birsa Munda Dombari Buru | Jharkhand Circle

Akashdeep Kumar
Akashdeep Kumar - Student
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जलियांवाला  बाग की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से देश-दुनिया परिचित है। स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी यह शामिल है। लेकिन हमें ( History and Story of Dombari Buru ) डोंबारी बुरू की याद नहीं है। क्योंकि इस पहाड़ का वृत्तांत न इतिहास में दर्ज है न पाठ्यक्रमों में। पर लोगों के दिलोदिमाग में यह घटना आज भी दर्ज है। जालियाँवाला बाग की घटना के बीस साल पहले झारखंड के खूँटी जिले में अंग्रेजों ने 9 जनवरी, 1899 को हजारों मुंडाओं का बेरहमी से नरसंहार कर दिया था।

इसमें महिलाएँ और बच्चे काफी संख्या में थे।आजादी के आंदोलन में वर्तमान के झारखंड में भी जालियांबाला बाग जैसी घटना घट चुकी है। जालियांबाला बाग की घटना से 20 वर्ष पूर्व घटी घटना में सैकड़ों आदिवासियों को अंग्रेज सिपाहियों ने चारों ओर से घेरकर भून दिया था। जोहार दोस्तों, मैं हूँ आकाशदीप कुमार और आप सभी का स्वागत करता हूँ झारखण्ड सर्किल में। आज के इस पोस्ट में  हम बात करेंगे डोंबारी बुरु के बारे में। 

डोम्बारी बुरु की कहानी | Story of Dombari Buru

ये स्थान है खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड क्षेत्र का डोंबारी बुरु। आज से 124 साल पहले नौ जनवरी 1900 को अंग्रेजों ने डोंबारी बुरु में निर्दोष लोगों को चारों तरफ से घेर कर गोलियों से भून दिया था। डोंबारी बुरु में भगवान बिरसा मुंडा अपने 12 अनुयाइयों के साथ सभा कर रहे थे। सभा में आस-पास के दर्जनों गांव के लोग भी शामिल थे। इनमें महिलाएं और बच्चे भी थे। बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ लोगों में उलगुलान की बिगुल फूंक रहे थे। अंग्रेज को बिरसा की इस सभा की खबर हुई। अंग्रेज सैनिक वहां धमके और डोंबारी पहाड़ को चारों तरफ से घेर लिया और अंग्रेज सैनिक मुंडा लोगों पर कहर बनकर टूट पड़े। बिना कोई सूचना के अंग्रेज सैनिकों ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। बिरसा मुंडा भी अपने समर्थकों के साथ पारंपरिक हथियारों के दम पर अंग्रेजों का जमकर सामना किया। इस संघर्ष में सैकड़ों लोग शहीद हो गए। हालांकि, बिरसा मुंडा अंग्रेजों को चकमा देकर वहां से निकलने में सफल रहे। लोग डोंबारी बुरु को झारखंड का जालियांबाला बाग कहते हैं। इस घटना के बाद हर साल यहां नौ जनवरी को मारे गए लोगों की याद में शहादत दिवस मनाया जाता है।

बिरसा मुंडा ने 24 दिसंबर, 1899 को ‘उलगुलान’ का एलान कर दिया था. घोषणा कर दी गई थी कि जल, जंगल, जमीन पर हमारा हक है, क्योंकि ये हमारा राज है. उलगुलान की चिंगारी जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा क्षेत्र में फैल गई। 9 जनवरी 1900 को डोंबरी बुरू पहाड़ी पर हजारों मुंडा तीर-धनुष और पारंपरिक हथियार इकट्ठा हुए। यहाँ गुप्तचरों ने पहले ही अंग्रेजी पुलिस को मुंडाओं के जुटने की खबर दी थी। पहाड़ी को अंग्रेजों की सेना और पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया। दोनों पक्षों में भयानक संघर्ष हुआ। हजारों आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। बिरसा मुंडा और उनके समर्थक तीर बरसा रहे थे, जबकि अंग्रेज बंदूकें और तोप चला रहे थे। स्टेट्समैन के 25 जनवरी 1900 के अंक में छपी खबर के अनुसार, इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ी खून से रंग गई थी. लाशें बिछ गई थी और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ी के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था. इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए थे. 

विशु मुंडा ने डोंबारी बुरु के नीचे 80 डीमसील जमीन दान में दी | Vishu Munda donated 80 dismil of land below Dombari Buru

डोंबारी बुरु को संवारने के लिए गांव के विशु मुंडा ने डोंबारी बुरु के नीचे 80 डीमसील जमीन 1990 में दान में दी। पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा के साथ प्रशासनिक अधिकारी जेबी तुबिद ने विशु को आश्वस्थ किया था कि जमीन के बदले उसे मुआवजा और नौकरी दी जाएगी। विशु मंडा बताते हैं कि जमीन तो दे दी। जमीन पर धरती आबा की आदमकद प्रतिमा स्थापित हुई, आखड़ा बना, विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा के विधायक निधि से आकर्षक मंच का भी निर्माण किया गया। 15 लाख की लागत से डोंबारी पहाड़ तक पीसीसी सड़क का निर्माण भी कराया गया, लेकिन उन्हें ना मुआवजा मिला और ना नौकरी। इसके बावजूद वे खुश हैं कि धरती आबा के नाम पर कुछ बना। उन्होंने कहा कि सरकार को इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर राज्य के भावी पीढ़ी के लिए ज्ञानवर्धक स्थल का रूप देना चाहिए।

डॉ. रामदयाल मुंडा की भागीदारी डोम्बारी बुरु में | Dr. Ramdayal Munda’s participation in Dombari Buru

राज्यसभा के सदस्य रहे अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद, समाजशास्त्री, आदिवासी बुद्धिजीवी व साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. रामदयाल मुंडा ने डोंबारी बुरु में एक स्तंभ का निर्माण कराया था। 110 फुट ऊंचा यह स्तंभ आज भी सैकड़ों लोगों के शहादत की कहानी बयां करती है। वर्ष 1986-87 में बनाए गए विशाल स्तंभ उलगुलान के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए आज भी विकास की बाट जोह रहा है। स्तंभ की सीढ़ी व फर्स पर लगे पत्थर टूट चुके हैं। सीढि़यों के किनारे बनाए गए रेलिग भी कई जगह टूट चुकी है। सैकड़ों लोगों के शहादत की कहानी बयां करने वाली इस ऐतिहासिक स्तंभ को अब किसी तारणहार का इंतजार है जो झारखंड की धरती पर शुरू हुए आजादी के उलगुलान के गवाह को संवार कर भावी पीढ़ी के लिए सजाकर रखेगा।

डोम्बारी बुरु में शहीद | Martyr in Dombari Buru

शिलापट्ट पर अबुआ दिशोम, अबुआ राज के लिए शहीद हुए हाथी राम मुंडा, हाड़ी मुंडा, सिंगरा मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी, डुंडन मुंडा की पत्नी के नाम लिखे हैं. आज पहाड़ी तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क बन चुकी है. कहना गलत नहीं होगा कि डोंबारी बुरू की चढ़ाई से भी ऊंचा बिरसा मुंडा और उनके साथियों का स्थान है. आने वाली पीढ़ियां इस वीरगाथा से प्रेरणा ले रही है |

डोम्बारी बुरु का उद्देश्य | Purpose of Dombari Buru

खूंटी जिले के जंगलों के बीच डोंबारी बुरू पहाड़ी को सिर्फ पहाड़ कह देना सही नहीं होगा. ये पहाड़ झारखंड की अस्मिता और संघर्ष की गवाह है, ये बिरसा मुंडा और उनके लोगों के बलिदान की कर्मभूमि है. ये वो स्थान है जहां से आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा लेंगी. आज ये जगह युवाओं को रोमांचित कर रही है. डोंबारी बुरू पहाड़ी पर ही धरती आबा ने अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम लड़ाई लड़ी थी.

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By Akashdeep Kumar Student
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