आखिर क्यों इस Festival में औरते शिकार पे निकलती है ? – History & Story of Jani Shikar

Akashdeep Kumar
Akashdeep Kumar - Student
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Jharkhand Circle के आज के इस ब्लॉग पोस्ट में हम एक अनोखी और प्राचीन परंपरा “( Jani Shikar ) जनी शिकार” के बारे में जानने जा रहे हैं। यह परंपरा झारखंड राज्य और भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के कुछ हिस्सों में मनाई जाती है। जनी शिकार एक ऐसी परंपरा है जो न केवल आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती है, बल्कि महिलाओं की शक्ति और सामर्थ्य का भी प्रतीक है।

“जनी शिकार” का शाब्दिक अर्थ है “महिलाओं द्वारा शिकार”। यह परंपरा हर 12 साल में एक बार मनाई जाती है, और इस दौरान आदिवासी महिलाएं शिकार करने के लिए जंगलों में जाती हैं। आम तौर पर, शिकार का काम पुरुषों का माना जाता है क्योंकि इसमें शारीरिक शक्ति और हिंसा की आवश्यकता होती है। लेकिन जनी शिकार इस पारंपरिक धारणा को चुनौती देता है और दिखाता है कि महिलाएं भी इस कठिन कार्य को कर सकती हैं।

जनी शिकार के बारे में | About Jani Shikar

झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों में एक अनोखी परंपरा देखने को मिलती है जिसे “जनी शिकार” कहते हैं। इसका अर्थ है महिलाओं द्वारा किया जाने वाला शिकार। आम तौर पर, जनजातीय परिवारों में मुखिया पुरुष होते हैं और जीवन यापन के लिए आवश्यक वस्तुओं की जिम्मेदारी भी ज्यादातर पुरुषों पर होती है। वहीं, महिलाएं घर, परिवार और बच्चों की देखभाल करती हैं, जो कि दुनिया की कई अन्य सामाजिक संरचनाओं में भी देखा जा सकता है।  हालाँकि, पुरुषों और महिलाओं के बीच कार्य विभाजन के लिए कोई कठोर नियम नहीं हैं। कई स्थानों पर आदिवासी पुरुष और महिलाएं एक साथ मिलकर काम करते हैं। लेकिन, शिकार का काम व्यापक रूप से पुरुषों का माना जाता है क्योंकि इसमें काफी हिंसा और शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है।

जनि शिकार क्या सन्देश देता है ? | What message does Jani Shikar give?

“जनी शिकार” इसी पारंपरिक सोच को चुनौती देता है। इसमें महिलाएं शिकार के लिए निकलती हैं और इस कार्य को सफलतापूर्वक अंजाम देती हैं। यह परंपरा बताती है कि महिलाएं भी शारीरिक रूप से चुनौतीपूर्ण कार्यों को कर सकती हैं और उनके पास भी वह ताकत और क्षमता है जो आमतौर पर पुरुषों से जुड़ी मानी जाती है।  इस प्रकार, “जनी शिकार” न केवल एक पारंपरिक प्रथा है बल्कि यह महिलाओं की शक्ति, क्षमता और समानता का प्रतीक भी है। यह परंपरा हमारे समाज में लैंगिक भूमिकाओं के पुनर्मूल्यांकन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

जनी शिकार कितने वर्ष में मनाया जाता है ? | In how many years is Jani Shikar celebrated?

जनी शिकार हर 12 साल में एक बार आयोजित किया जाता है। इस आयोजन की खास बात यह है कि इसमें केवल महिलाएँ ही सेंदरा, यानी शिकार पर निकलती हैं, इसलिए इसे जनी शिकार कहा जाता है। यह परंपरा उरांव जनजाति के गौरवशाली इतिहास से जुड़ी हुई है, जो झारखंड में नारी शक्ति के उत्थान का प्रतीक है। जबकि नारीवाद 1960 के दशक में समाजशास्त्रीय विमर्श में उभरने लगा था, झारखंड ने लगभग 500 साल पहले ही नारी शक्ति की इस ताकत को देखा, जब उरांव महिलाओं ने सैन्य हमलों का डटकर सामना किया था।

जनी शिकार का इतिहास | History of Jani Shikar

उरांव जनजाति का इतिहास छोटानागपुर से पहले बिहार के रोहतासगढ़ से जुड़ा हुआ है। उस समय उरांव जनजाति का रोहतासगढ़ में साम्राज्य था, और वहाँ के किले में धन-दौलत का भंडार था। उरांव जनजाति के राजा उरगन ठाकुर वहाँ शासन करते थे। यह मुगल काल का समय था जब मुगल शासक भारत के अन्य क्षेत्रों में अपना साम्राज्य फैलाने में लगे थे। इसी दौरान मुगलों की नजर रोहतासगढ़ पर पड़ी। औरंगजेब के शासनकाल में मुगलों ने इस किले पर आक्रमण करने की योजना बनाई।

मुगल सेना ने  किले पर हमला कर दिया। Mughal army attacked the fort

मुगलों ने रोहतासगढ़ के गुप्त भेदों का पता लगाने के लिए गुप्तचर नियुक्त किए थे। लुंदरी नामक एक ग्वालन ने खद्दी पर्व की जानकारी मुगलों को दी। खद्दी पर्व के दिन सभी उरांव पुरुष सरना स्थल पर पूजा में लीन थे और केवल महिलाएँ ही किले में थीं। मुगल सेना ने इसी समय किले पर हमला कर दिया। किले की रक्षा के लिए उरांव महिलाओं ने पगड़ी बाँधकर, पुरुषों का वेश धारण किया और तीर-धनुष तथा भाला लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गईं। उरगन राजा की बेटी सिनगी दई और सेनापति की पुत्री कैला दई के नेतृत्व में उरांव महिलाओं ने मुगल सेना का सामना किया। इस घमासान युद्ध में उरांव महिलाओं ने मुगल सेना को परास्त कर दिया और मुगलों को भागने पर मजबूर कर दिया।

पठान सेना को फिर से हार का सामना करना पड़ा। Pathan army again faced defeat

अगले साल पठानों की सेना ने सरहुल पर्व के दिन फिर से आक्रमण किया। इस बार पठान सेना अधिक संख्या में और पूरी तैयारी के साथ आई थी। लेकिन इस बार भी उरांव महिलाओं ने उनका बहादुरी से सामना किया और पठान सेना को फिर से हार का सामना करना पड़ा। तीसरी बार मुगल सेना ने फिर से हमला किया। इस बार भी उरांव महिलाओं ने डटकर मुकाबला किया और एक बार फिर विजय प्राप्त की। मुगल सेना ने देखा कि उरांव महिलाएँ लड़ाई के बाद नदी में दोनों हाथों से अपना चेहरा धो रही थीं। मुगलों के गुप्तचरों ने यह देखा और उन्हें विश्वास हो गया कि तीनों बार इन्हीं महिलाओं ने उन्हें पराजित किया है। इसके बाद मुगल सेना में प्रतिशोध की भावना और तीव्र हो उठी। इस बार उन्होंने छल और बल दोनों का प्रयोग किया और तोपों का भी इस्तेमाल किया।

उरांव वीरांगनाएँ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुईं | Oraon brave women attained martyrdom while fighting

इस बार उरांव वीरांगनाएँ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुईं। जब उरांव पुरुषों को इस हमले का पता चला तो सब कुछ खत्म हो चुका था। मुगल सेना ने किले पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद उरांव जनजाति ने भारी मन से रोहतासगढ़ को छोड़ दिया और पलामू होते हुए छोटानागपुर की ओर प्रस्थान किया।

जनी शिकार कब और कैसे मनाया जाता है ? When & How Jani Shikar is Celebrated ?

रोहतासगढ़ की उराँव वीरांगनाओं की वीरता को याद करने के लिए हर 12 साल पर एक विशेष आयोजन किया जाता है। झारखंड के आदिवासी समाज में पुरुष और महिलाओं के बीच समानता का महत्व है, और उनके सामाजिक अधिकार भी समान हैं। इस आयोजन के माध्यम से समानता के अधिकार की वकालत की जाती है। इस अवसर पर महिलाएं पुरुषों के कपड़े पहनती हैं, पारंपरिक हथियारों को धारण करती हैं और गांव के अंदर ही शिकार करने निकलती हैं, जंगलों में नहीं।

अब जनी शिकार सिर्फ गांव तक ही सीमित हो गया है। Now Jani Shikar is limited to villages only

झारखंड के राज्य बनने के बाद, 2006 में इस आयोजन का पुनः आयोजन किया गया था। लेकिन समय के साथ, भारत सरकार ने कुछ जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया है। वन विभाग ने भी इस प्रथा को रोकने और इसके बारे में आदिवासियों को जागरूक करने के प्रयास किए हैं। इस कारण, आदिवासी लोग इस त्योहार के प्रति थोड़ा रूढ़िवादी हो गए हैं। हालांकि, यह पर्व अभी भी झारखंड के दूरदराज के आदिवासी इलाकों में मनाया जाता है, लेकिन इसका उत्सव अब मुख्यतः गांवों के अंदर ही सीमित रह गया है।

जनी शिकार में किसका शिकार किया जाता है ? | Who is hunted in Jani Shikar ?

इस दौरान महिलाएं मुर्गियाँ, बकरियाँ और जो भी जानवर उनके रास्ते में आते हैं, उनका शिकार करती हैं। ग्रामीणों को इस अवसर पर अपने जानवरों के मारे जाने पर कोई आपत्ति नहीं होती। “जनी शिकार” अलग-अलग गाँवों में अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। शिकार किए गए जानवरों को गांव के अखरा में लाकर उनका बंटवारा किया जाता है। गाँववाले इस शिकार का विरोध नहीं करते हैं। वे शिकार किए गए जानवरों को पकाते हैं, एक साथ दावत करते हैं और पूरी रात नाचते-गाते हैं।

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