झारखण्ड के प्रमुख पर्व-त्योहार ( Main festivals of jharkhand State ) राज्य की विविधता, संस्कृति और परंपराओं को प्रकट करते हैं। झारखण्ड राज्य की धरती न केवल खनिज सम्पदा से भरपूर है, बल्कि यहाँ के लोग अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को गर्व से संजोए हुए हैं। झारखण्ड के त्योहार न केवल यहाँ के जनजीवन में रंग भरते हैं, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ जोड़ते हैं। चाहे वह सरहुल हो, करमा हो, या मण्डा पर्व, हर पर्व के पीछे एक गहरी परंपरा और उत्साह छिपा है। आइए, इन त्योहारों की झलकियों के माध्यम से झारखण्ड की समृद्ध संस्कृति को और करीब से जानें।
सरहुल पर्व | Sarhul Festival
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यह जनजातियो का सबसे बड़ा पर्व है।
अन्य नाम –
◐ खद्दी ( उराँव जनजाति ) ◐ बा परब ( संथाल जनजाति ) ◐ जकोर ( खड़िया जनजाति )
यह प्रकृति से संबंधित त्योहार है।
यह चैत / चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस पर्व में साल के वृक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आदिवासी ऐसा मानते हैं कि साल के वृक्ष में उनके देवता बोंगा निवास करते हैं। यह फूलों का त्योहार है। यह पर्व बसंत के मौसम में मनाया जाता है। इस समय साल के वृक्षों पर नये फूल खिलते हैं। यह पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है-
◉ सरहुल का पहला दिन – मछली के अभिषेक किए हुए जल को घर में छिड़का जाता है।
◉ सरहुल का दूसरा दिन – उपवास रखा जाता है तथा गांव का पुजारी गांव के हर घर की छत पर साल के फूल रखता है।
◉ सरहुल का तीसरा दिन – पाहन (पुरोहित) द्वारा सरना (पूजा स्थल) पर सरई के फूलों ( सखुए का कुंज ) की पूजा की जाती है तथा पाहन उपवास रखता है। साथ ही मुर्गी की बलि दी जाती है तथा चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर सुड़ी नामक खिचड़ी बनायी जाती है, जिसे प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
◉ सरहुल का चौथा दिन – गिड़िवा नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन कहलाता है।
एक परंपरा के आधार पर इस पर्व के दौरान गाँव का पुजारी मिट्टी के तीन पात्र लेता है। और उन्हें ताजे पानी से भरता है। अगले दिन प्रातः वह मिट्टी के तीनों पात्रों को देखता है। यदि पात्रों में पानी का स्तर घट गया है तो वह अकाल की भविष्यवाणी करता है और
यदि पानी का स्तर सामान्य रहता है, तो इसे उत्तम वर्षा का संकेत माना जाता है। सरहुल की पूजा के दौरान ग्रामीणों द्वारा सरना (पूजा स्थल) को घेरा जाता है।
मण्डा पर्व | Manda Puja
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इसमें महादेव (शिव) की पूजा होती है। यह पर्व बैशाख माह के अक्षय तृतीया को आरंभ होता है। यह पर्व आदिवासी और सदान दोनों में प्रचलित है। इस पर्व में उपवास रखने वाले पुरूष-व्रती को भगता और महिला-व्रती को सोखताइन कहते हैं।
झारखण्ड में महादेव (शिव) की यह सबसे कठोर पूजा है। इस पर्व के दौरान भोगताओं को रात में धूप-धवन की अग्नि-शिखाओं के ऊपर उल्टा लटकाकर झुलाया जाता है, जिसे धुवांसी कहा जाता है। इस पर्व में भोगताओं को दहकते हुए अंगारों पर चलना होता है, जिसे फूल-खूंदी कहा जाता है। इस पर्व के दौरान कहीं-कहीं लोहे से निर्मित
अंकुश को रस्सी से बांधकर झुलाया जाता है तथा उससे भगता लोगों की पीठ पर छेद किया जाता है। इस दौरान भगता लोगों की माँ अथवा बहन भगवान शिव की अराधना करते रहती हैं।
करमा पर्व | Karma Puja
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यह प्रकृति संबंधी त्योहार है। इस त्योहार का प्रमुख संदेश कर्म की जीवन में प्रधानता है । यह आदिवासी व सदानों में समान रूप से प्रचलित है। इस पर्व में भाई के जीवन की कामना हेतु बहन द्वारा उपवास रखा जाता है। यह पर्व हिन्दुओं के भईया दूज की ही भांति भाई-बहन के प्रेम का पर्व है। यह पर्व भाद्रपद (भादो) माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। इस त्योहार में नृत्य के मैदान (अखड़ा) में करम वृक्ष की दो डालियाँ गाड़ दी जाती है तथा पाहन द्वारा लोगों को करमा कथा (करमा एवं धरमा नामक भाईयों की कथा ) सुनायी जाती है। इस पर्व के दौरान रात भर नृत्य-गान का कार्यक्रम किया जाता है।
मुण्डा जनजाति में करमा की दो श्रेणियाँ हैं:-
◐ राज करमा – घर आंगन में की जाने वाली पारिवारिक पूजा
◐ देश करमा – अखरा में की जाने वाली सामूहिक पूजा
मुण्डाओं में मान्यता है कि इस पर्व के दौरान करम गोसाई से मांगी गयी हर मन्नत पूरी होती है। मुण्डा जनजाति की कुँआरी लड़कियाँ इस पर्व में एक बालू भरी टोकरी में कुर्थी, जौ, गेहूँ, मकई, उड़द, चना तथा मटर सात प्रकार के अनाजों की ‘जावा’ उगाने की प्रथा का पालन करती हैं। इस टोकरी को पूजा स्थल में रखकर जवा का प्रसाद वितरित किया जाता है तथा अगले दिन सूर्योदय से पूर्व करम-डाली को नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है।
सोहराई पर्व | Sohrai Festival
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यह पर्व दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाता है। इसका संबंध जानवर धन से है। अतः इस पर्व में मवेशियों को नहलाकर उनकी पूजा की जाती है। पौष माह में फसल कट जाने के बाद यह पर्व मनाया जाता है। यह झारखण्ड में संथाल जनजाति का सबसे बड़ा पर्व है। पर्व को मनाने से पूर्व जनजाति समुदायों द्वारा अपने घरों की दीवारों पर पेंटिंग भी की जाती है। पेंटिंग हेतु कृत्रिम रंगों के स्थान पर प्राकृतिक पदार्थों (पत्तियाँ, चावल, कोयला आदि) का प्रयोग किया जाता है। यह पर्व पांच दिनों तक चलता है-
◉ पहला दिन – ‘गोड टाण्डी’ (बथान) में जाहेर एरा का आह्वान किया जाता है तथा रात में प्रत्येक गृहस्थ के युवक-युवतियाँ गो-पूजन करते हैं।
◉ दूसरा दिन – गोहाल पूजा की जाती है तथा गोशाला को अल्पना द्वारा सजाकर गाय को नहलाकर उसके शरीर को रंगा जाता है। गाय के सींग पर तेल व सिंदूर लगाकर उसके गले में फूलों की माला पहनायी जाती है।
◉ तीसरा दिन – पशुओं को धान की बाली एवं मालाओं से सजाकर खूँटा जाता है जिसे ‘सण्टाऊ’ कहा जाता है।
◉ चौथा दिन – युवक व युवतियाँ गांव से चावल, दाल, नमक व मसाला आदि मांगकर जमा करते हैं।
◉ पांचवा दिन – गांव से एकत्रित चावल, दाल आदि से खिचड़ी बनाया जाता है जिसे गांव के लोग साथ में खाते हैं।
धान बनी पर्व | Dhan Bani Festival
यह पर्व आदिवासी तथा सदान दोनों द्वारा मनाया जाता है। इस समय धान बुआई का प्रारंभ होता है। इस पर्व में हड़िया का तपान चढ़ाया जाता है तथा प्रसाद वितरित किया जाता है।
बहुरा पर्व | Bahura Festival
इसे राइज बहरलक के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व भादो माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन मनाया जाता है। यह अच्छी वर्षा तथा संतान प्राप्ति हेतु महिलाओं द्वारा मनाया जाता है।
कदलेटा पर्व | Kadleda Festival
यह पर्व भादो माह में करमा से पहले मनाया जाता है। यह मेढ़क भूत को शांत करने के लिए मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान पाहन पूरे गाँव से चावल प्राप्त करके हड़िया उठाता है। इसमें अखरा में साल, भेलवा तथा केन्दु की डालियां रखकर पूजा की जाती है तथा मान्यता के अनुसार पूजा के बाद लोग इस डाल को अपने खेतों में गाड़ते हैं ताकि फसल को रोगमुक्त रखा जा सके। इस पर्व में मुर्गी की बलि दी जाती है जिसे प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
टुसू पर्व | Tusu Festival
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यह सूर्य पूजा से संबंधित त्योहार है तथा मकर सक्रांति के दिन मनाया जाता है। यह पर्व टुसू नाम की कन्या की स्मृति में मनाया जाता है। इस पर्व के अवसर पर पंचपरगना में टुसू मेला लगता है। इस पर्व के दौरान लड़कियों द्वारा रंगीन कागज से लकड़ी या बांस के एक फ्रेम को सजाया जाता है तथा इसे आस-पास के पहाड़ी क्षेत्र में प्रवाहित किसी नदी को भेंट कर दिया जाता है।
फगुआ पर्व | Faghuwa Festival
यह फागुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह होली के समरूप त्योहार है।इस पर्व के दौरान आदिवासी लोग पाहन के साथ मिलकर सेमल अथवा अरण्डी की डाली गाड़कर संवत् जलाते हैं तथा मुर्गे की बलि देकर हड़िया का तपान चढ़ाते हैं, जबकि गैर-आदिवासी लोग संवत् जलाते समय बलि नहीं देते हैं। इस पर्व के दूसरे दिन धुरखेल मनाया जाता है।
आषाढ़ी पूजा | Aashadhi Puja
यह पर्व आदिवासी तथा सदान दोनों द्वारा मनाया जाता है।आषाढ़ माह में मनाये जाने वाले इस पर्व में घर-आंगन में बकरी की बलि दी जाती है तथा हड़िया का तपान चढ़ाया जाता है ऐसी मान्यता है कि इस पर्व से गाँव में चेचक जैसी बीमारी का प्रकोप नहीं होता है।
नवाखानी पर्व | Nawakhani Festival
यह पर्व करमा पर्व के बाद मनाया जाता है। नवाखानी का तात्पर्य है – ‘नया अन्न ग्रहण करना।’ नये अन्न को घर लाकर शुद्ध ओखली व मूसल से कूट कर चूड़ा बनाया जाता है जिसे देवताओं व पूर्वजों को अर्पित किया जाता है।
पर्व के दौरान दही-चूड़ा का तपान चढ़ाया जाता है तथा घर आये अतिथियों के साथ दही-चूड़ा ग्रहण किया जाता है।
सूर्याही पूजा | Suyarhi Puja
अगहन माह में आयोजित इस पर्व में सफेद मुर्गे की बलि दी जाती है एवं हड़िया का तपान चढ़ाया जाता है। इस पर्व को किसी टांड़ (एक प्रकार का ऊँचा स्थान) पर मनाया जाता है। इस पर्व में केवल पुरूष भाग लेते हैं।
चाण्डी पर्व | Chandee Festival
यह पर्व उराँव जनजाति द्वारा मनाया जाता है। यह पर्व माघ पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस पर्व में महिलाएँ भाग नहीं लेती हैं तथा जिस परिवार में कोई महिला गर्भवती हो उस परिवार का पुरुष भी इस पर्व में भाग नहीं लेता है। इस पर्व के दौरान आदिवासी लोग पाहन के साथ मिलकर सेमल अथवा अरण्डी की डाली गाड़कर संवत् जलाते हैं तथा मुर्गे की बलि देकर हड़िया का तपान चढ़ाते हैं, जबकि गैर-आदिवासी लोग संवत् जलाते समय बलि नहीं देते हैं। इस पर्व के दूसरे दिन धुरखेल मनाया जाता है। इस पर्व में भाग लेने वाले पुरूष चाण्डी स्थल में देवी की पूजा करते हैं। इस पर्व में सफेद व लाल मुर्गा तथा सफेद बकरे की बलि दी जाती है।
देव उठान पर्व | Dev Uthan Festival
यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष के चतुर्दशी के दिन मनाया जाता है। इस पर्व में देवों को जागृत किया जाता है। इस पर्व के बाद ही विवाह हेतु कन्या अथवा वर देखने की प्रथा आरंभ की जाती है।
भाई भीख पर्व | Bhai Bhikh Festival
यह पर्व बारह वर्ष में एक बार मनाया जाता है। इस पर्व में बहन अपने भाई के घर से भिक्षा मांगकर अनाज लाती है तथा एक निश्चित दिन निमंत्रण देकर उसे अपने घर पर भोजन कराती है।
बुरू पर्व | Buru Festival
यह पर्व मुण्डा जनजाति द्वारा मनाया जाता है। इस पर्व का मुख्य उद्देश्य वन्य जीवों तथा मानव का तालमेल स्थापित करना तथा प्राकृतिक प्रकोपों से समाज की रक्षा हेतु कामना करना है।
छठ पूजा | Chhath Puja
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यह झारखण्ड राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। छठ पर्व वर्ष में दो बार मार्च और नवंबर में मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान सूर्य भगवान की पूजा करते हुए उन्हें अर्ध्य अर्पित किया जाता है। यह पर्व अस्त होते हुए सूर्य को प्रसन्न करने हेतु मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान प्रसाद हेतु मिठाई (व्यंजन) के रूप में ‘ठेकुआ’ का वितरण किया जाता है।
बंदना पर्व | Bandna Festival
इस पर्व का आयोजन कार्तिक अमावस्या के दौरान सप्ताह भर किया जाता है। इस पर्व की शुरूआत ओहिरा गीत के साथ की जाती है। यह त्योहार मुख्यतः पालतू जानवरों से संबंधित है। इसमें कपड़ों तथा गहनों से जानवरों को सजाया जाता है। साथ ही प्राकृतिक रंगों द्वारा जानवरों पर लोक कलाकृति भी अंकित किया जाता है।
रोहिन / रोहिणी त्योहार | Rohini Festival
यह त्योहार झारखण्ड राज्य में कैलेंडर वर्ष का प्रथम त्योहार है। यह बीज बोने के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। इस त्योहार के प्रारंभ के दिन से किसानों द्वारा खेतों में बीज बोने की शुरूआत की जाती है। इस त्योहार को मनाने के दौरान किसी प्रकार का नृत्य प्रदर्शन या लोकगीत गायन नहीं किया जाता है।
हेरो पर्व | Hero festival
हेरो शब्द का अर्थ छींटना या बुआई करना होता है। इस पर्व का आयोजन मुख्यतः हो जनजाति द्वारा माघे व बाहा पर्व के बाद किया जाता है। यह पर्व कोल्हान क्षेत्र में हो जनजाति द्वारा मनाया जाता है। यह पर्व खेतों में बोये गए बीज की सुरक्षा हेतु मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस पर्व का आयोजन नहीं किए जाने पर कृषि कार्य को नुकसान होता है।
भगता पर्व | Bhagta Festival
यह पर्व बसंत एवं ग्रीष्म ऋतु के मध्य मनाया जाता है। यह पर्व तमाड़ क्षेत्र में प्रचलित है। इस पर्व को सरना मंदिर में ‘बुढ़ा बाबा के पूजा’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोग उपवास रखते हैं तथा गांव के पुजारी को कंधे पर उठाकर सरना मंदिर ले जाते हैं।
सेंदरा पर्व | Sendra Festival
इस पर्व का आयोजन भादो माह में किया जाता है। यह पर्व अविवाहित आदिवासी युवतियों में प्रजनन क्षमता में वृद्धि तथा अच्छे वर हेतु मनाया जाता है। सेंदरा उराँव जनजाति की संस्कृति एवं परंपरा से संबंधित है। सेंदरा का शाब्दिक अर्थ ‘शिकार’ होता है। उराँव जनजाति में महिलाओं द्वारा शिकार खेलने की प्रथा को ‘मुक्का सेंदरा’ के नाम से जाना जाता है। इस पर्व के दौरान जनजातीय महिलाएँ पूरे दिन पुरूष के कपड़े पहनकर पशुओं का शिकार करती हैं। यह पर्व उराँवों की आत्मरक्षा, युद्ध विद्या, भोजन व अन्य जरूरतों की पूर्ति से संबंधित है। उराँव जनजाति के लोग प्रत्येक वर्ष वैशाख में सू सेंदरा, फागुन में फागु सेंदरा तथा वर्षा ऋतु के प्रारंभ होने पर जेठ शिकार करते हैं।
जनी शिकार पर्व | Jani Shikar Festival
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इस पर्व के दौरान महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से पुरूषों का वेश धारण करके परंपरागत हथियार से जानवरों का शिकार किया जाता है। इस दौरान महिलाएँ बच्चों को बेतरा (बच्चों को पीठ पर बाँधने वाला एक कपड़ा) से अपनी पीठ पर बाँधकर शिकार के लिए निकलती हैं। शाम के समय किए गए शिकार को अखड़ा में पकाया जाता है तथा पाहन द्वारा सभी को पका हुआ मांस वितरित किया जाता है। यह भारत में केवल झारखण्ड राज्य में ही मनाया जाता है। यह पर्व 12 वर्षों के अंतराल पर मनाया जाता है।
माघे पर्व | Maghe Festival
यह पर्व माघ माह में मनाया जाता है। इस पर्व के साथ ही कृषि वर्ष का अंत होता है तथा नया कृषि वर्ष प्रारंभ होता है। यह कृषि श्रमिकों ( धांगर) की विदाई का पर्व है। इस पर्व के दौरान धांगरों को उनके पारिश्रमिक के भुगतान के साथ रोटी व पीठा खिलाकर विदा किया जाता है।
सावनी पूजा | Shawani puja
यह पूजा श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को की जाती है। इसमें बकरे की बलि देकर देवी पूजा की जाती है | हड़िया का तपान चढ़ाया जाता है।
पाटो सरना त्योहार | Pato Sarna Festival
यह त्योहार मुख्य रूप से खड़िया जनजाति में मनाया जाता है। वैशाख माह में मनाये जाने वाले इस पर्व में देवताओं के नाम पर भैंसा या भेड़ा तथा पांच मुर्गा की बलि दी जाती है। इस पूजा को ‘कालो’ नामक पुजारी संपन्न कराता है। इस पूजा के दौरान सरना स्थल पर दूध उबाला जाता है तथा उसके गिरने की दिशा के आधार पर बारिश की भविष्यवाणी की जाती है।
जाडकोर पूजा | Jaadkor Puja
यह त्योहार मुख्य रूप से खड़िया जनजाति में मनाया जाता है।यह त्योहार मुख्य रूप से खड़िया जनजाति में मनाया जाता है। इस पूजा को भी ‘कालो’ नामक पुजारी संपन्न कराता है।यह पूजा मानव व पशुओं की रक्षा हेतु किया जाता है | इस पूजा के दौरान कोई बलिष्ठ युवा ‘कालो’ को अपने कंधे पर बिठाकर घर-घर घुमाता है।
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जोहार 🙏