भारत त्योहारों की भूमि है, और यहां हर पर्व अपने साथ संस्कृति, परंपरा और इतिहास की अनमोल धरोहर लेकर आता है। टुसू पर्व (Tusu Parv/Parab), जिसे झारखंड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के क्षेत्रों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है, ऐसा ही एक खास पर्व है। यह ( Tusu Festival) पर्व न केवल खेतों में फसल के समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि समाज की एकता और स्वाभिमान की भी झलक दिखाता है। आइए जानते हैं टुसू पर्व की गहराई, इसकी परंपराओं, और इससे जुड़ी पौराणिक कथाओं के बारे में।
टुसू पर्व कब और क्यों मनाया जाता है?
टुसू पर्व मकर संक्रांति के अवसर पर मनाया जाता है, जो हर वर्ष 14 या 15 जनवरी को पड़ती है। यह पर्व फसल कटाई के बाद घर में नई फसल के आगमन की खुशी का प्रतीक है। इसे धान कटाई के बाद के उल्लास के रूप में मनाया जाता है। झारखंड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में यह पर्व बहुत लोकप्रिय है। इन राज्यों के प्रमुख इलाकों जैसे रांची, रामगढ़, हजारीबाग, गिरिडीह और दक्षिणी झारखंड में इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
टुसू पर्व से जुड़ी पौराणिक कथा
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टुसू पर्व की जड़ें लोककथाओं और प्राचीन पौराणिक कथाओं में समाई हुई हैं। यह पर्व खासतौर पर एक आदिवासी लड़की टुसू की वीरता और बलिदान को याद करता है। कहानी के अनुसार, टुसू एक कुंवारी कन्या थी, जिसकी सुंदरता की चर्चा पूरे राज्य में थी। उसकी सुंदरता की खबर राजा तक पहुंच गई। राजा ने टुसू को पाने के लिए षड्यंत्र रचा। उसी समय राज्य में अकाल पड़ा, और राजा ने किसानों से कर वसूलने का फरमान जारी किया। गरीब किसान कर देने में असमर्थ थे, लेकिन राजा ने उनकी स्थिति पर ध्यान न देते हुए उन पर सख्ती बरती। किसानों ने राजा के आदेश का विरोध किया और संगठित होकर एक आंदोलन किया। जब राजा टुसू को पकड़ने के लिए आया, तो किसानों और सैनिकों के बीच संघर्ष हुआ। इसी संघर्ष के दौरान, टुसू ने अपने स्वाभिमान और समाज की गरिमा बचाने के लिए नदी में कूदकर अपनी जान दे दी। टुसू के बलिदान की याद में यह पर्व मनाया जाता है, जो नारी स्वाभिमान, साहस और बलिदान का प्रतीक है।
टुसू पर्व की परंपराएं और उत्सव का तरीका
टुसू पर्व के दौरान गांव-गांव में गीत-संगीत और नृत्य की धूम रहती है। टुसू गीत, जो इस पर्व का मुख्य आकर्षण है, लोककथाओं और परंपराओं को संजोए हुए है। इन गीतों में टुसू के बलिदान और समाज के लिए उनके योगदान का वर्णन किया जाता है।
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इस पर्व में कुंवारी कन्याओं का खास योगदान होता है। वे टुसू की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करती हैं। टुसू की मूर्ति को सजाकर, नदियों और तालाबों में विसर्जित किया जाता है। यह त्यौहार न केवल धार्मिक भावना को जगाता है, बल्कि समाज में एकता और समर्पण का संदेश भी देता है।
टुसू पर्व: समाज और संस्कृति का संगम
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टुसू पर्व सिर्फ एक त्योहार नहीं है; यह झारखंड, बंगाल और उड़ीसा के समाज की आत्मा है। यह पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है और हमारी सांस्कृतिक धरोहर की याद दिलाता है। टुसू का बलिदान हमें यह सिखाता है कि स्वाभिमान और समाज की रक्षा के लिए हर बलिदान छोटा है। इस पर्व में आदिवासी और मूलवासी समाज मिलकर अपनी परंपराओं का पालन करते हैं। गीत-संगीत, सामूहिक नृत्य और पूजा इस पर्व को खास बनाते हैं।
अंतिम शब्द
टुसू पर्व न केवल एक धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव है, बल्कि यह नारी शक्ति और बलिदान की कहानी है। यह हमें सिखाता है कि समाज के लिए, अपने अधिकारों के लिए और अपनी अस्मिता के लिए खड़ा होना कितना महत्वपूर्ण है। अगर आप झारखंड, पश्चिम बंगाल या उड़ीसा में हैं, तो इस पर्व को करीब से देखना और महसूस करना एक अद्भुत अनुभव होगा। यह पर्व इन क्षेत्रों की संस्कृति, परंपरा और लोकजीवन की गहराई को समझने का अनूठा अवसर है।
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