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खरसावां गोलीकांड (Kharsawan Golikand) : झारखंड का जलियांवाला बाग | Jallianwala Bagh of Jharkhand | Jharkhand Circle - Jharkhand Circle

खरसावां गोलीकांड (Kharsawan Golikand) : झारखंड का जलियांवाला बाग | Jallianwala Bagh of Jharkhand | Jharkhand Circle

Akashdeep Kumar
Akashdeep Kumar - Student
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(Kharsawan Golikand) Jallianwala Bagh of Jharkhand : झारखंड की धरती संघर्ष, साहस, और बलिदान की गाथाओं से भरी पड़ी है। ऐसा ही एक क्रूर अध्याय है 1 जनवरी 1948 को खरसावां गोलीकांड (Kharsawan Golikand)। यह वह दिन है, जब झारखंड के हजारों आदिवासियों ने अपनी जान गंवाई, केवल इसलिए क्योंकि वे अपने अधिकारों और एक अलग झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे। यह घटना आज़ाद भारत की पहली बड़ी त्रासदी मानी जाती है, जिसे “आजाद भारत का जलियांवाला बाग कांड” भी कहा जाता है।इस दिन को झारखंड में जश्न के बजाय शोक और स्मरण के रूप में मनाया जाता है। खरसावां में इस कांड के दौरान आदिवासी आंदोलनकारियों पर उड़ीसा मिलिट्री पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं। यह घटना झारखंड के संघर्षपूर्ण इतिहास का ऐसा काला अध्याय है, जिसे न तो भूला जा सकता है और न ही भुलाना चाहिए।

खरसावां रियासत और विलय की पृष्ठभूमि

आज से 1948 के समय की बात करें तो खरसावां एक छोटी रियासत थी, जिसे उड़ीसा में विलय करने का निर्णय लिया गया था। भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की कोशिश थी कि सभी देशी रियासतों को भारत के संघात्मक ढांचे में शामिल किया जाए। उन्होंने रियासतों को तीन समूहों में बांटा – बड़ी, मध्यम और छोटी। खरसावां और सरायकेला जैसी छोटी रियासतों को उड़ीसा में विलय करने की योजना बनाई गई थी, क्योंकि वहां उड़िया बोलने वालों की संख्या अधिक थी। लेकिन झारखंड के आदिवासी इस फैसले से सहमत नहीं थे। वे खरसावां और सरायकेला को झारखंड का हिस्सा बनाना चाहते थे। इस समय झारखंड अलग राज्य की मांग भी तेज़ी से बढ़ रही थी। जयपाल सिंह मुंडा जैसे आदिवासी नेता इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने लोगों को खरसावां पहुंचने और अपनी आवाज बुलंद करने का आह्वान किया।

1 जनवरी 1948: खरसावां में गोलियों की गूंज

1 जनवरी 1948 को झारखंड के विभिन्न इलाकों जैसे जमशेदपुर, रांची, खूंटी, सिमडेगा, तमाड़ और चाईबासा से हजारों आदिवासी खरसावां पहुंचे। इन लोगों के पास पारंपरिक हथियार थे, और वे अपने अधिकारों की मांग करने के लिए पूरी तरह तैयार थे। खरसावां में उस दिन हाट (साप्ताहिक बाजार) भी लगा हुआ था, और वहां करीब 50,000 आदिवासी आंदोलनकारी जमा हो चुके थे।
लेकिन जयपाल सिंह मुंडा किसी कारणवश सभा में नहीं पहुंच सके। उनकी अनुपस्थिति के कारण भीड़ अधीर हो गई। उधर, उड़ीसा सरकार पहले से ही इस विरोध प्रदर्शन को दबाने के लिए सतर्क थी। खरसावां में उड़ीसा मिलिट्री पुलिस को तैनात किया गया था, और चारों ओर माहौल तनावपूर्ण था।

भीड़ के गुस्से और अधीरता को देखते हुए, उड़ीसा मिलिट्री पुलिस ने अचानक गोलीबारी शुरू कर दी। यह गोलीबारी इतनी भयानक थी कि सैकड़ों लोग मौके पर ही मारे गए। चश्मदीदों के मुताबिक, लाशों को कुएं और जंगलों में फेंक दिया गया। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, मरने वालों की संख्या 2000 से भी अधिक थी।

मरने वालों की संख्या: एक अनसुलझा रहस्य

इस कांड में कितने लोग मारे गए, इसका सही आंकड़ा आज तक स्पष्ट नहीं है। अंग्रेजी अखबार द स्टेट्समैन के अनुसार, 35 लोगों की मौत हुई थी। वहीं, मयूरभंज के महाराजा पी.के. देव की किताब Memoir of a Bygone Era में 2000 से अधिक आदिवासियों के मारे जाने का जिक्र है। वास्तव में, इस कांड से जुड़ी कोई आधिकारिक रिपोर्ट या दस्तावेज आज तक उपलब्ध नहीं है। इस गोलीकांड की जांच के लिए एक ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था, लेकिन उसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई।

आदिवासियों का प्रतिरोध और अदम्य साहस

इस गोलीकांड के बाद आदिवासियों ने उड़ीसा सरकार से किसी भी प्रकार की सहायता या मुआवजे को ठुकरा दिया। उनका कहना था कि “जो सरकार हम पर गोलियां चला सकती है, उसका दिया हुआ कुछ भी हमें मंजूर नहीं।” खरसावां के इस आंदोलन ने झारखंड के आदिवासियों के संघर्ष और साहस को एक नई दिशा दी। यह घटना झारखंड राज्य आंदोलन का एक प्रतीक बन गई और इसने यह साबित कर दिया कि झारखंड के लोग अपने अधिकारों और पहचान के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

खरसावां शाहिद स्मारक: संघर्ष और शहादत का प्रतीक

इस भयानक घटना की याद में खरसावां में एक शाहिद स्मारक बनाया गया है। हर साल 1 जनवरी को यहां झारखंड के विभिन्न हिस्सों से लोग आते हैं और शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यह स्मारक झारखंड की राजनीति और इतिहास का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है।

खरसावां गोलीकांड का महत्व

खरसावां गोलीकांड न केवल झारखंड के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि यह स्वतंत्रता के बाद भी आदिवासियों के शोषण और उनके अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता केवल एक उत्सव नहीं है, बल्कि इसके पीछे अनगिनत कुर्बानियां हैं। यह कांड झारखंड की पहचान, उसके संघर्ष और उसकी संस्कृति का प्रतीक है।

आज का झारखंड और खरसावां की याद

आज झारखंड एक अलग राज्य है, लेकिन खरसावां की घटना उसकी नींव का हिस्सा है। यह घटना हमें यह सीख देती है कि सत्य और अधिकारों के लिए लड़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती। खरसावां गोलीकांड की कहानी न केवल झारखंड, बल्कि पूरे भारत को यह याद दिलाती है कि स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए संघर्ष का महत्व क्या है। यह घटना एक सबक है कि इतिहास को याद रखना और उससे सीखना कितना जरूरी है।


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“जोहार, झारखंड!”

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By Akashdeep Kumar Student
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