Professor Digambar Hansda: झारखंड की भूमि ने हमेशा से प्रतिभाओं को जन्म दिया है, और उनमें से एक महान नाम है प्रोफेसर दिगंबर हांसदा। वह न केवल संथाली भाषा और साहित्य के एक महान विद्वान थे, बल्कि एक समाजसेवी, लेखक, और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले प्रेरणास्त्रोत भी थे। इस लेख में हम उनके जीवन, उपलब्धियों और संथाली भाषा को एक नई ऊंचाई पर ले जाने में उनके अभूतपूर्व योगदान के बारे में जानेंगे।
प्रारंभिक जीवन
प्रोफेसर दिगंबर हांसदा का जन्म 16 अक्टूबर 1940 को झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला स्थित दुगनापानी गांव में हुआ। उनका बचपन बेहद साधारण और संघर्षों से भरा हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हरिजोदहा मिडिल स्कूल से हुई। इसके बाद उन्होंने बोर्ड परीक्षा मानपुर हाई स्कूल से पास की। उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई 1963 में रांची विश्वविद्यालय (उस समय बिहार विश्वविद्यालय) से राजनीति विज्ञान में पूरी की। 1965 में उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री भी प्राप्त की। प्रोफेसर हांसदा ने शिक्षा और सामाजिक कार्यों के माध्यम से न केवल झारखंड में, बल्कि पूरे भारत में अपनी पहचान बनाई।
करियर की शुरुआत और शैक्षणिक योगदान
1968 में प्रोफेसर हांसदा ने अपने करियर की शुरुआत आदिवासी सहकारी समिति के सचिव के रूप में की। इसके बाद उन्होंने जमशेदपुर के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल कॉलेज (एसएम कॉलेज) में शिक्षक के रूप में योगदान दिया। शिक्षण के साथ-साथ उन्होंने कई शैक्षणिक और प्रशासनिक पदों पर काम किया। उन्होंने संथाली भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रम को विकसित करने में राज्य और केंद्र सरकार का सहयोग किया। उनके प्रयासों के चलते:
• संथाली भाषा में इंटरमीडिएट, ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन स्तर के पाठ्यक्रम तैयार किए गए।
• उन्होंने संथाली भाषा को आधिकारिक दर्जा दिलाने में अहम भूमिका निभाई।
संथाली भाषा और साहित्य में योगदान
संथाली भाषा को न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में प्रोफेसर हांसदा का योगदान अद्वितीय है।
वह संथाल साहित्य अकादमी के संस्थापक सदस्य थे। उन्होंने भारतीय संविधान का संथाली भाषा में अनुवाद किया।
उनकी प्रमुख पुस्तकों में शामिल हैं:
• स्वर्णा गद्य पद्य संग्रह
• संथाली लोककथा संग्रह
• भारतीय अलौकिक देव-देवी गंगा माला
• संतालों का गोत्र
• उन्होंने देवनागरी लिपि से संथाली भाषा में अनुवाद में भी मदद की। 1993 में, उन्होंने नेपाल में संथाली को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए भी पहल की।
सामाजिक और साहित्यिक संगठनों में भागीदारी
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प्रोफेसर हांसदा ने अपने जीवनकाल में कई संगठनों के साथ काम किया:
• वह केंद्र सरकार के जनजातीय अनुसंधान संस्थान और साहित्य अकादमी के सदस्य रहे।
• उन्होंने IIM बोधगया, भारतीय भाषाओं के केंद्रीय संस्थान (मैसूर), और यूपीएससी के संथाली साहित्य से जुड़े समितियों में योगदान दिया।
• वह ऑल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन से भी जुड़े रहे।
सम्मान और पुरस्कार
प्रोफेसर दिगंबर हांसदा को उनकी सेवाओं के लिए कई सम्मान और पुरस्कार मिले:
• पद्मश्री पुरस्कार (2018): राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें यह सम्मान प्रदान किया।
• लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड: यह सम्मान उन्हें ऑल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन ने दिया।
• दर्जनों साहित्यिक और सामाजिक संगठनों ने उन्हें उनके योगदान के लिए सम्मानित किया।
संथाली भाषा को वैश्विक मंच पर पहचान
प्रोफेसर हांसदा ने अपने जीवन को संथाली भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। उनकी पुस्तकों, अनुवाद कार्यों, और अकादमिक योगदान ने संथाली भाषा को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया।
जीवन का अंतिम पड़ाव
81 वर्ष की आयु में, 19 नवंबर 2020 को, प्रोफेसर दिगंबर हांसदा का निधन जमशेदपुर में हो गया। उनका जाना झारखंड और पूरे देश के लिए एक बड़ी क्षति थी।
प्रेरणा का स्रोत
प्रोफेसर दिगंबर हांसदा एक प्रेरणास्त्रोत हैं। उन्होंने यह साबित किया कि दृढ़ निश्चय और मेहनत से समाज में बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं। उनका जीवन, उनके विचार और उनका काम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शक बने रहेंगे। प्रोफेसर दिगंबर हांसदा ने झारखंड और संथाली समाज के उत्थान के लिए जो काम किया, वह हमेशा याद रखा जाएगा। वह केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचारधारा थे।
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