Manda Puja झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर में विविधता और रंगीनियत का अनूठा मिश्रण है, Jharkhand में हर पर्व और त्योहार का अपना खास महत्व है। इन पर्वों में से एक महत्वपूर्ण और रोमांचक पर्व है ‘मंडा’, जो झारखंड की प्राचीन परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं का जीवंत प्रतीक है। झारखंड के जनजातीय और ग्रामीण समाज में मंडा पर्व का विशेष स्थान है, जहां श्रद्धालु न केवल अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि पारंपरिक रीति-रिवाजों को भी जीवित रखते हैं। मंडा पर्व की सबसे अनोखी और रोमांचक परंपरा है आग के अंगारों पर चलने की रस्म। इस अद्वितीय रस्म में श्रद्धालु बिना किसी भय के जलते अंगारों पर चलते हैं, जो उनकी अटूट आस्था और साहस का प्रतीक है। यह दृश्य न केवल देखने वालों के लिए रोमांचक होता है, बल्कि इसे करने वाले के लिए भी यह एक आध्यात्मिक अनुभव होता है।

हालांकि, मंडा पर्व झारखंड में धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन इसके बारे में बहुत से लोग अज्ञात हैं। इस पर्व का महत्व, इसकी परंपराएं, और इसे मनाने के पीछे की कथा को जानना अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक है। jharkhandcircle.in के इस ब्लॉग पोस्ट में हम आपको मंडा पर्व की समृद्ध परंपराओं, इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व, और आग के अंगारों पर चलने की इस अद्वितीय रस्म के बारे में विस्तार से बताएंगे। जोहार दोस्तों मेरा नाम आकाशदीप कुमार है। आइए, आज के इस पोस्ट के माध्यम से मंडा पर्व की रंगीन दुनिया में प्रवेश करें और जानें कि कैसे यह पर्व झारखंड के लोगों के जीवन में उत्साह और धार्मिक आस्था का संचार करता है।
मंडा पूजा के बारे में | About Manda Puja

दुनिया की कई प्राचीन संस्कृतियों में आग पर चलने का पर्व देखने को मिलता है। इसी तरह का एक अनोखा पर्व, मंडा पर्व, पूरे छोटानागपुर क्षेत्र में मनाया जाता है। यह पर्व चैत्र मास (मार्च-अप्रैल) के शुक्ल पक्ष से शुरू होकर ज्येष्ठ मास (मई-जून) तक चलता है। आदिवासी और सदान समुदाय मिलकर इस पर्व को मनाते हैं, जिसमें आग पर चलकर अपनी आस्था और साधना की सत्यता को प्रमाणित किया जाता है। अलग-अलग गाँवों में यह त्योहार विभिन्न दिनों पर मनाया जाता है। शिव की इस उपासना में आदिवासी और सदान का भेद मिट जाता है।
मंडा पूजा में क्या खास है ? | What is special in Manda Puja?

मंडा पर्व की विशेषता यह है कि आदिवासियों का कोई भी त्योहार बलि और चावल से बनी शराब (इलि) के बिना पूरा नहीं होता, परंतु मंडा पर्व ऐसा पर्व है जिसमें न तो किसी प्रकार की बलि दी जाती है और न ही इलि का तर्पण किया जाता है। यह पर्व पूर्णतः सात्त्विक रूप से मनाया जाता है। इस पर्व में मुख्य उपासक जिन्हें भगता या भगतिया कहा जाता है, के नेतृत्व में अन्य उपासक धधकती आग पर नंगे पैर चलते हैं, वह भी गर्मियों के दिनों में। जिस रात यह पर्व मनाया जाता है, उस रात को ‘जागरण’ और आग पर चलने की क्रिया को ‘फूलखुंदी’ कहा जाता है। गाँव में मंडा पर्व मनाने के लिए दो स्थान चुने जाते हैं: एक मेले के लिए और दूसरा पूजा के लिए, जो शिव मंदिर के पास होता है।
मंडा पर्व में भगत कौन बन सकता है ? | Who can become a Bhagat in Manda festival?

मंडा पर्व में कोई भी व्यक्ति उपासक या भगता बन सकता है, चाहे वह किसी भी जाति का हो। 8-10 साल के बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी भगता बन सकते हैं। यहाँ तक कि गैर-आदिवासी भी भगता बन सकते हैं। मान्यता है कि जिस पर शिव के गण की अंश मात्र भी छाया आ जाए, वह भगता बनने के लिए उपयुक्त होता है। ऐसा होने पर वह व्यक्ति अपना सिर धुनने लगता है और धरती पर लोटता हुआ मंदिर के निकट पहुँचता है। मंदिर पहुँचने के बाद ही वह व्यक्ति शांत होता है। परंपरागत रूप से गाँव में भगता और सहायक भगता होते हैं। भगता मुख्य रूप से पाँच, सात, या नौ दिनों के लिए पदस्थापित होते हैं। पदस्थापन से पूर्व उनका मुंडन कराया जाता है और विधिवत पूजा प्रारंभ होती है। प्रारंभिक दिन से अंतिम दिन तक ये उपवास में रहते हैं और ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। प्रतिदिन प्रातःकाल जलाशय में स्नान करते हैं और तब पूजा-पाठ में जुट जाते हैं। मुख्य भगता, पूजा-पाठ करने के बाद गाँव के प्रत्येक घर जाकर पूजा करता है। इस समय अन्य भगता साड़ी पहनकर सज-सँवरकर ‘डगर’ भरते हैं। यह पूजा मंडा के अंतिम दिन तक नियमित रूप से चलती रहती है। मंडा की पूर्व रात्रि को लोग जागरण करते हुए यहाँ का प्रसिद्ध लोकनृत्य ‘छऊ’ करते हैं।
मंडा पूजा में धुँआसी का रस्म | Dhuasi ritual in Manda Puja

मंडा पर्व में धुँआसी की रस्म का विशेष महत्व है। इस रस्म में जमीन पर आग जलाकर एक खंभे के सहारे भक्तों को सिर नीचे की ओर लटकाया जाता है और उन्हें आग के आर-पार झुलाया जाता है। इसे धूप-धूवन की अग्नि शिखा पर उलटे लटकाना भी कहा जाता है। मंडा पूजा को कई जगह चरक पूजा के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व झारखंड में सदान और आदिवासी समुदायों के साथ-साथ अन्य पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जाति के लोगों द्वारा भी श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाता है। इस दौरान आदिवासियों का छऊ नृत्य और जतरा का भी आयोजन किया जाता है, जो इस पर्व की शोभा को और बढ़ा देते हैं।
मंडा पर्व में फूलखुंदी का रस्म | Phoolkhundi ritual in Manda Festival

मंडा पर्व के दौरान फूलखुंदी एक महत्वपूर्ण रस्म है जिसमें भक्तजन नंगे पाँव आग पर चलते हैं। इस रस्म के लिए लगभग 15-20 फीट लंबा और 5-6 फीट चौड़ा नाला तैयार किया जाता है, जिसे आम की सूखी लकड़ियों से भरकर अंगारे बनाए जाते हैं। सूर्यास्त के बाद, भक्तजन महादेव मंदिर से निकलकर इन दहकते अंगारों के पास पहुँचते हैं। उनके साथ सोखताइनें माथे पर कलश और आम के पत्ते लेकर चलती हैं, जो एक शुद्धिकरण की प्रक्रिया का हिस्सा है। जब लकड़ियाँ पूरी तरह अंगारों में बदल जाती हैं, तो पहले पुजारी अपनी नंगी हथेली पर कुछ अंगारे लेकर मंदिर में देवी-देवताओं को अर्पित करता है। इसके बाद सभी भक्तजन नंगे पाँव अंगारों पर चलते हैं, जिसमें महिलाएं, पुरुष और बच्चे सभी शामिल होते हैं।

फूलखुंदी के अगले दिन मेला आयोजित होता है, जिसमें लोग रातभर आनंद लेते हैं। इसके बाद, सभी भक्तजन ‘शिवजी की छवि’ देखते हैं, तेल-सिंदूर लगाकर मुंडन करते हैं और इस प्रकार फूलखुंदी और मंडा पर्व का समापन होता है। चुटिया स्थित शिव मंदिर के पास मंडा मेला का आरंभ होता है और इसके बाद विभिन्न तिथियों पर अन्य स्थानों पर भी इस मेले का आयोजन किया जाता है।
मंडा में झूलन का रस्म | Jhulan ritual in Manda Puja

मंडा के झूलन उत्सव में भक्त एक विशेष रस्म अदा करते हैं जिसमें उनकी नंगी पीठ में लोहे का हुक लगाया जाता है। इस हुक से बंधी रस्सी के सहारे उन्हें एक ऊँचे खंभे पर लटकाया जाता है, जिसे चरक स्तंभ या चरक डाँग मचान कहते हैं। इस खंभे में एक चरखी होती है, जिसके सहारे भक्त हवा में 15-20 फीट की ऊँचाई पर लटके रहते हैं और चारों ओर घूमते हैं। इस दौरान वे ऊपर से फूलों की बौछार करते हैं। इन फूलों को पाना शुभ माना जाता है, इसलिए बड़ी संख्या में महिलाएँ अपने आँचल फैलाए नीचे खड़ी रहती हैं और पुरुष भी फूल पाने के लिए दौड़ते हैं।

झूलन उत्सव अक्षय तृतीया से शुरू होता है, लेकिन कई जगहों पर इसे चैत महीने से ही मनाना शुरू कर दिया जाता है और यह पूरे वैशाख महीने तक चलता है। अलग-अलग गाँवों में इसे अलग-अलग तिथियों पर मनाया जाता है। दिन में मेला लगता है और रात को फूलखुंदी होती है। शुरुआत में भक्त शिव मंदिर में लोटन सेवा करते हैं और माँ भगवती एवं भगवान शिव की आराधना करते हैं। रात में महिलाएँ सिर पर कलश लेकर तालाब जाती हैं, वहाँ स्नान और पूजा करके देवी मंडप आकर जलाभिषेक करती हैं। इसके बाद वे दहकते अंगारों पर नंगे पाँव चलकर फूलखुंदी करती हैं।
अन्य जानकारी मंडा पूजा के बारे में | More Information Related to Manda Puja

- मंडा पूजा दस दिनों तक चलती है और इस अवधि में भगता को कड़े अनुशासन में रहना पड़ता है।
- पूजा के दस दिन पहले मुख्य भगता या पटभगता सभी भगताओं का नेतृत्व करता है।
- भगता रात्रि में भोजन नहीं करता और नियम-संयम का पालन करता है।
- शराब और मांस का सेवन नहीं किया जाता है, और घर पर इन चीजों को नहीं पकाया जाता है।
- भगता एक समय में केवल शरबत, चना और फल खाता है।
- कई बार वह दूध या खीर भी खाता है।
- अन्य भगता मेले के तीन दिन पूर्व से पटभगता की तरह रहते हैं और समय स्नान, ध्यान, और पूजा करते हैं।
- फूलखुंदी के 24 घंटे पूर्व से निर्जला उपवास किया जाता है, पूरे दिन सात बार स्नान किया जाता है और भगताओं के साथ सोखताइनें भी स्नान करती हैं।
- स्नान के बाद भीगे वस्त्र पहने महादेव मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की जाती है, स्नान के बाद शरीर सुखाया नहीं जाता है।
- झारखंड में मंडा के समय अब झूलन में लोहे के हुक के स्थान पर कपड़े बाँधकर झुलाते हैं, कई जगहों पर लोहे के हुक से भी झुलाया जाता है।
( Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. Jharkhand Circle इसकी पुष्टि नहीं करता है.)