History of Jharkhand in medieval period | मध्य काल में झारखण्ड का इतिहास | Jharkhand Circle

Akashdeep Kumar
Akashdeep Kumar - Student
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मध्य काल में झारखण्ड का इतिहास
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झारखंड के मध्यकालीन इतिहास ( History of Jharkhand in medieval period ) को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है : पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल।

Contents
पूर्व मध्यकाल में झारखण्ड महामाया मंदिर ( Mahamaya Mandir )टांगीनाथ का मंदिर ( Tanginath Mandir )छिन्नमस्तिका शक्तिपीठ ( Ma Chhinnamastika Devi Mandir )ईटखोरी ( चतरा )उत्तर मध्यकाल में झारखण्डझारखण्ड में बख्तियार खिलजी का प्रवेश | Entry of Bakhtiyar Khilji into Jharkhandझारखण्ड में अलाउद्दीन खिलजी का प्रवेश | Alauddin Khilji’s entry into Jharkhandझारखण्ड में मोहम्मद बिन तुगलक का प्रवेश | Entry of Mohammad Bin Tughlaq in Jharkhandझारखण्ड में फिरोजशाह तुगलक का प्रवेश | Firozshah Tughlaq’s entry into Jharkhandझारखण्ड में लोदी वंश का प्रवेश | Entry of Lodi dynasty in Jharkhandझारखण्ड में आदिल शाह द्वितीय का प्रवेश | Entry of Aadil Shah-II in Jharkhandझारखण्ड में शेरशाह का प्रवेश | Entry of Shershah in Jharkhandझारखण्ड में हुमायूँ का प्रवेश | Humayun’s entry into Jharkhandझारखण्ड में अकबर का प्रवेश | Akabar’s entry into Jharkhandअकबर के शासनकाल का पूर्वार्द्ध – अफगानों पर विजयअकबर के शासनकाल का उत्तरार्द्ध – क्षेत्रीय राजवंशों पर शासन1. छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 2. पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 3. सिंहभूम का सिंह वंश का प्रवेश 4. मानभूम व हजारीबाग के राजवंश का प्रवेश झारखण्ड में जहाँगीर का प्रवेश | Entry of Jahangir into Jharkhand1. छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 2. झारखण्ड में पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 3. झारखण्ड में विष्णुपुर व पंचेत पर आक्रमण 4. झारखण्ड में खुर्रम (शाहजहाँ) का राजमहल आगमनझारखण्ड में शाहजहाँ का प्रवेश | Shahjahan’s entry into Jharkhand1. छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 2. पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 3. सिंहभूम का सिंह वंश का प्रवेश 4. अन्य क्षेत्रीय राजवंश का प्रवेश झारखण्ड में शाह शूजा का प्रवेश | Entry of Shah Shuja into Jharkhandझारखण्ड में औरंगजेब का प्रवेश | Aurangzeb’s entry into Jharkhandछोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश  पलामू का चेरो वंश का प्रवेश अन्य क्षेत्रीय राजवंश का प्रवेश 

पूर्व मध्यकाल में झारखण्ड

हर्षवर्धन की मृत्यु और दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बीच की अवधि को पूर्व मध्यकाल कहा जाता है। झारखण्ड राज्य का संबंध पूर्व मध्यकाल से भी रहा है।

इस अवधि में झारखंड के इतिहास का प्रारंभिक विकास देखने को मिलता है। इस समय इस क्षेत्र में कई छोटे-छोटे राज्य और जनजातीय समुदाय का अनुभव था। इन जन जातीय में प्रमुख रूप से मुंडा, संथाल, हो और राक्षस शामिल थे। ये जनजातीय लोग जंगल और पहाड़ों में बसे हुए थे और उनकी सामाजिक संरचना कबीलाई प्रणाली पर आधारित थी।

महामाया मंदिर ( Mahamaya Mandir )

यह मंदिर झारखण्ड के गुमला जिला है। हापामुनि गाँव में स्थित महामाया मंदिर इस बात का प्रमाण है कि झारखण्ड राज्य का संबंध पूर्व मध्यकाल से रहा है। महामाया मंदिर का निर्माण नागवंशी शासक गजघंट राय ने 908 ई. में कराया था। सियानाथ देव के द्वारा इसमें विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गयी थी। इस मंदिर का प्रथम पुरोहित द्विज हरिनाथ नामक मराठा ब्राह्मण था। यह गजघंट राय का धार्मिक गुरू था।

टांगीनाथ का मंदिर ( Tanginath Mandir )

यह मंदिर गुमला में अवस्थित है , इस मंदिर का निर्माण भी इसी काल में हुआ है।

छिन्नमस्तिका शक्तिपीठ ( Ma Chhinnamastika Devi Mandir )

रामगढ़ ( रजरप्पा ) का अष्ठभुजी छिन्नमस्तिका शक्तिपीठ भी पूर्व मध्यकाल की पुष्टि करता है। छिन्नमस्तिका बौद्ध ब्रजयोगिनी का ही हिन्दू प्रतिरूप है।

ईटखोरी ( चतरा )

झारखण्ड के ईटखोरी ( चतरा ) से पाल शासक महेन्द्रपाल के शिलालेख मिले हैं। पाल काल में ही ईटखोरी में माँ भद्रकाली की मूर्ति का निर्माण किया गया।

उत्तर मध्यकाल में झारखण्ड

उत्तर मध्यकाल में झारखंड में राजनीतिक और सांस्कृतिक लोकतंत्र का दौर आया। इस अवधि में क्षेत्र में बाहरी आक्रमणों का प्रभाव बढ़ा, जिसमें शासक मुस्लिमों और अन्य राजवंशों का आगमन हुआ। इन आक्रमणों ने झारखंड की राजनीतिक संरचना को प्रभावित किया और कई नए शासकों और राजवंशों का उदय हुआ।

उत्तर मध्यकाल में क्षेत्रीय रियासतें आधिपत्य मजबूत और उनके बीच आपसी संघर्ष भी बढ़ा। इस दौरान स्थानीय शासकों ने अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए किले और मजबूत गढ़ों का निर्माण कराया। इसके साथ ही, इस अवधि में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता भी देखने को मिली, जिसमें हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रभाव शामिल था।

झारखण्ड में बख्तियार खिलजी का प्रवेश | Entry of Bakhtiyar Khilji into Jharkhand

1206 ई. ( 13वीं शताब्दी ) में बख्तियार खिलजी ने झारखण्ड होकर बंगाल के सेन वंशी शासक लक्ष्मण सेन की राजधानी नादिया पर आक्रमण किया था। गुलाम वंश के इल्तुतमिश और बलबन के समय झारखण्ड इनके प्रभाव से मुक्त था , क्योंकि उस समय का नागवंशी राजा हरिकर्ण प्रभावशाली और शक्तिशाली था।

झारखण्ड में अलाउद्दीन खिलजी का प्रवेश | Alauddin Khilji’s entry into Jharkhand

अलाउद्दीन खिलजी ने 1310 ई. में अपने सेनापति छज्जू मलिक को नागवंशी राज्य पर विजय प्राप्त करने हेतु भेजा था।अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति छज्जू मलिक ने नागवंशी शासक को कर देने के लिए विवश किया। अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर दक्षिण भारत के विजय अभियान पर जाते समय झारखण्ड से गुजरा था | नागवंशी राजा बेणु कर्ण ने अलाउद्दीन खिलजी की अधीनता स्वीकार की थी।

झारखण्ड में मोहम्मद बिन तुगलक का प्रवेश | Entry of Mohammad Bin Tughlaq in Jharkhand

तुगलक वंश के शासक मोहम्मद बिन तुगलक का सेनापति मलिक बया हजारीबाग क्षेत्र में चाई-चांपा तक आ पहुंचा था , जबकि संथाली स्रोत के अनुसार यह आक्रमण इब्राहिम अली के नेतृत्व में हुआ। इस आक्रमण के दौरान इब्राहिम अली द्वारा बीघा के किले पर अधिकार के बाद संथाल लोग अपने सरदार के साथ यहां से भाग गए। मलिक बया ने हजारीबाग के चाई किला को जीतकर फतेहखान दौरा के हवाले कर दिया था। मोहम्मद बिन तुगलक ने छज्जुदीन आजमुल मुल्क को सतगावां का शासक नियुक्त किया था। तुगलक के काल में नागवंशी राजा हरि कर्ण था।

झारखण्ड में फिरोजशाह तुगलक का प्रवेश | Firozshah Tughlaq’s entry into Jharkhand

फिरोजशाह तुगलक ने बंगाल के शासक शम्सीउद्दीन शाह को पराजित कर हजारीबाग के सतगाँवा क्षेत्र पर विजय प्राप्त किया था इसे अपने जीते हुए क्षेत्रों की राजधानी बनाया।

झारखण्ड में लोदी वंश का प्रवेश | Entry of Lodi dynasty in Jharkhand

लोदी वंश के सुल्तानों के प्रभाव झारखण्ड लगभग मुक्त था। इस काल में छोटानागपुर पर शासन करने वाले नागवंशी राजा प्रतापकर्ण, छत्रकर्ण एवं विराटकर्ण थे। लोदी वंश के समकालीन उड़ीसा के गजपति वंश का सामना झारखण्ड को करना पड़ा। कपिलेन्द्र गजपति (गजपति वंश का संस्थापक) उस समय दक्षिण-पूर्वी भारत एक शक्तिशाली शासक था।उसने संथाल परगना तथा हजारीबाग को छोड़कर नागवंशी राज्य के बहुत बड़े भू-भाग पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया।1494 ई. में सिकंदर लोदी के भय से जौनपुर के शासक हुसैन शाह सर्की ने झारखण्ड के साहेबगंज में शरण ली थी।

झारखण्ड में आदिल शाह द्वितीय का प्रवेश | Entry of Aadil Shah-II in Jharkhand

खान देश का शक्तिशाली शासक आदिलशाह द्वितीय / आदिल खान द्वितीय ने अपने सैन्य दल को झारखण्ड भेजा था। अतः उसे झारखण्डी सुल्तान के नाम से भी जाना जाता है।

झारखण्ड में शेरशाह का प्रवेश | Entry of Shershah in Jharkhand

शेरशाह ने मुगलों के विरूद्ध संघर्ष के अपने विभिन्न अभियानों में झारखण्ड क्षेत्र का प्रयोग किया था। 1534-37 ई. के अपने बंगाल अभियान के दौरान शेरशाह झारखण्ड से होकर गुजरा था। इस अभियान के दौरान शेरशाह के पुत्र जलाल खाँ ने तेलियागढ़ी (राजमहल क्षेत्र) की नाकाबंदी की थी। शेरशाह बंगाल अभियान के बाद मुगलों को चकमा देकर राजमहल (झारखण्ड) के रास्ते ही रोहतासगढ़ पहुँचा तथा 1538 ई. में रोहतासगढ़ के किले पर अधिकार कर लिया। शेरशाह के शासनकाल में झारखण्ड में शाही सिक्कों का प्रचलन तेज हुआ। झारखण्ड में मुस्लिमों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय शेरशाह को जाता है। 1538 ई. में शेरशाह के सेनापति खवास खाँ ने दरिया खाँ के साथ मिलकर चेरो महाराजा महारथ चेरो को परास्त कर श्याम सुंदर नामक एक हाथी प्राप्त किया। 1539 में चौसा के युद्ध में शेरशाह ने मुगल शासक हुमायूँ को पराजित कर रोहतास से वीरभूम तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। इसके बाद लगभग 35 वर्षों तक राजमहल क्षेत्र पर शेरशाह व उनके वंशजों का अधिकार रहा।

झारखण्ड में हुमायूँ का प्रवेश | Humayun’s entry into Jharkhand

मुगल-अफगान संघर्ष (1530-40 ई.) के दौरान एक बार हुमायूँ भुरकुंडा (हजारीबाग) तक पहुँच गया था।

झारखण्ड में अकबर का प्रवेश | Akabar’s entry into Jharkhand

झारखण्ड के संदर्भ में अकबर के शासनकाल को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। शासनकाल का पूर्वार्द्ध (1556-76 ई.) एवं शासनकाल का उत्तरार्द्ध (1576-1605 ई.)। अकबर ने अपने शासनकाल के पूर्वार्द्ध में झारखण्ड क्षेत्र में सक्रिय अफगानों पर विजय प्राप्त किया तथा उत्तरार्द्ध में क्षेत्रीय राजवंशों पर शासन स्थापित किया।

अकबर के शासनकाल का पूर्वार्द्ध – अफगानों पर विजय

अकबर के विरूद्ध अभियान में अफगानों ने झारखण्ड के क्षेत्र का उपयोग किया। 1575 ई. के टकरोई की लड़ाई के बाद जुनैद कर्रानी ने बिहार जाने के क्रम में रामपुर (वर्तमान) रामगढ़ में रूका, जहाँ इसका पीछा करते हुए मुगलों की सेना भी आ गयी। यहाँ जुनैद कर्रानी व मुगलों की सेना के बीच हुए रामपुर की लड़ाई में मुगलों की जीत हुई।

अकबर के शासनकाल का उत्तरार्द्ध – क्षेत्रीय राजवंशों पर शासन

1. छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 

अकबर नागवंशों की राजधानी कोकरह/खुखरा को अपने नियंत्रण में लेना चाहता था। इसका प्रमुख कारण दक्षिण भारत जाने हेतु या युद्ध में इस क्षेत्र का उपयोग (सामरिक कारण), साम्राज्य विस्तार (राजनीतिक कारण), इस क्षेत्र की आर्थिक समृद्धि (आर्थिक कारण) आदि थे। अकबर ने 1585 ई. में शाहबाज खाँ को झारखण्ड पर विजय प्राप्त करने हेतु भेजा। इस युद्ध में नागवंशी शासक मधुकरण शाह की पराजय हुयी तथा मधुकरण शाह ने वार्षिक मालगुजारी देना स्वीकार किया।बाद में मधुकरण शाह ने उड़ीसा के शासक कुतुल खाँ एवं उसके पुत्र निसार खाँ के विरूद्ध मुगल मनसबदार मान सिंह के अभियान (1590-92 ई.) में मुगलों का साथ दिया।

2. पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 

1589 ई. में राजा मानसिंह को अकबर ने बिहार-झारखण्ड का सूबेदार नियुक्त किया। मान सिंह ने 1590 ई. में पलामू के चेरो राजा भागवत राय को पराजित कर मुगलों की अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश कर दिया। पलामू में मुगलों की सेना नियुक्त करके भगवत राय को राजा बने रहने दिया। 1605 ई. में अकबर की मृत्यु के बाद चेरों ने मुगलों की सेना को मार भगाया तथा पलामू पर पुनः अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

3. सिंहभूम का सिंह वंश का प्रवेश 

1592 ई. में उड़ीसा अभियान हेतु जाते समय मानसिंह सिंहभूम क्षेत्र से होकर गुजरा। इस समय सिंहभूम के पोरहाट में सिंहवंशी राजा रणजीत सिंह का शासन था। मानसिंह ने इस दौरान रणजीत सिंह को मुगलों की अधीनता स्वीकारने हेतु विवश कर दिया तथा उसे अपने अंगरक्षक दल में शामिल कर लिया। 1592 ई. में ही मानसिंह ने राजमहल (साहेबगंज) को बंगाल की राजधानी बनाया। मानसिंह ने परकोटा व महल वाले नगरों का संयुक्त रूप से ‘अकबर नगर’ नामकरण किया।

4. मानभूम व हजारीबाग के राजवंश का प्रवेश 

1590-91 ई. में मानसिंह मिदनापुर के अभियान पर जाते समय मानभूम से गुजरा। इस दौरान उसने परा तथा तेलकुप्पी के मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया।’आइन-ए-अकबरी’ के अनुसार हजारीबाग के ‘छै’ और ‘चम्पा’ परगना बिहार सूबा में शामिल थे जिसकी वार्षिक मालगुजारी 15,500 रूपये निर्धारित की गयी।

झारखण्ड में जहाँगीर का प्रवेश | Entry of Jahangir into Jharkhand

झारखण्ड के संदर्भ में जहाँगीर के शासनकाल का संबंध छोटानागपुर खास के नागवंश, पलामू के चेरो वंश, विष्णुपुर व पंचेत पर आक्रमण तथा शाहजहाँ (शाहजादा खुर्रम) के राजमहल आगमन से है।

1. छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 

जहांगीर की आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में छोटानागपुर क्षेत्र से सोने की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है। अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ में जहाँगीर ने स्थानीय लोगों द्वारा शंख नदी से हीरे प्राप्त करने के तरीकों का वर्णन किया है। जहाँगीर इस क्षेत्र की नदियों में मिलने वाले हीरों के कारण इन पर अधिकार करना चाहता था। जहाँगीर के समय कोकरह का शासक दुर्जनशाल (मधुकरण शाह का उत्तराधिकारी) था जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने तथा मालगुजारी देने से मना कर दिया। जहाँगीर ने 1612 ई. में जफर खाँ को बिहार का नया सूबेदार नियुक्त किया तथा उसे कोकरह क्षेत्र पर अधिकार करने का आदेश दिया। परन्तु बीमारी के कारण जफर खाँ की मृत्यु हो गयी तथा जहाँगीर की इच्छा अधूरी रह गयी। जहाँगीर ने 1615 ई. इब्राहिम खाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया तथा उसे कोकरह (झारखण्ड) पर विजय प्राप्त करने हेतु भेजा। इस दौरान इब्राहिम खाँ ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर लिया तथा हीरों के लिए प्रसिद्ध ‘शंख नदी’ को अपने अधिकार में ले लिया। इब्राहिम खाँ ने नागवंशी राजा दुर्जनशाल को मुगलों की अधीनता स्वीकार करने का आदेश दिया तथा इससे मना करने पर दुर्जनशाल को 12 वर्षों तक (1615-27) ग्वालियर के किले में बंदी बनाकर रखा गया था। इस अभियान से जुड़े सभी व्यक्तियों को पुरस्कृत किया गया तथा इब्राहिम खाँ को ‘फाथ जंग’ की उपाधि प्रदान करते हुए चार हजारी मनसबदार बनाया गया। 1627 ई. में जहाँगीर के दरबार में एक हीरे की असलियत को लेकर विवाद हो गया। इन हीरों को परखने हेतु दुर्जनशाल को ग्वालियर से शाही दरबार में बुला लिया गया। दुर्जनशाल द्वारा हीरे की पहचान कर लेने के बाद जहाँगीर ने खुश होकर दुर्जनशाल को शाह की पदवी प्रदान करते हुए मुक्त कर दिया तथा उसका राज्य वापस कर दिया। इसके बदले दुर्जनशाल ने मुगल शासक जहाँगीर को 6,000 रूपये वार्षिक कर देना स्वीकार किया।

2. झारखण्ड में पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 

1607 ई. में अबुल फजल के पुत्र अफजल खाँ को जहाँगीर ने बिहार का सूबेदार नियुक्त किया। अफजल खाँ ने जहाँगीर के आदेश से पलामू के चेरो राजाओं के विरूद्ध एक सैन्य अभियान चलाया। उसके आक्रमण के समय पलामू का चेरवंशी शासक अनंत राय था। परन्तु आक्रमण के दो सप्ताह के भीतर ही बीमारी से अफजल खाँ की मृत्यु हो गयी तथा यह अभियान असफल हो गया। 1612 ई. में अनंत राय की मृत्यु के पश्चात सहबल राय पलामू का शासक बना। इसने अपने राज्य का विस्तार सड़क-ए-आजम (जी.टी. रोड) पर चौपारण (हजारीबाग) तक कर लिया। सहबल राय बंगाल की ओर जाने वाले मुगल काफिलों को लूट लिया करता था। इससे शाहजहाँ नाराज हो गया तथा उसने सहबल राय को बंदी बनाकर दिल्ली लाने का आदेश दिया। जहाँगीर ने अपने मनोरंजन हेतु सहबल राय को एक बाघ से लड़ने का आदेश दिया। इस लड़ाई में सहबल राय की मृत्यु हो गयी। सहबल राय की मृत्यु का समाचार मिलते ही चेरों ने सीमावर्ती मुगल क्षेत्रों में उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया जिसका मुगल अधिकारियों ने दमन कर दिया।

3. झारखण्ड में विष्णुपुर व पंचेत पर आक्रमण 

जहाँगीर के शासन काल में मुगल सेना ने मानभूम के विष्णुपुर पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की।जहाँगीर द्वारा 1607 ई. में अफजल खाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया गया था। अफजल खाँ ने बंगाल के मुगल सूबेदार इस्लाम खाँ के साथ मिलकर पंचेत के जमींदार वीर हमीर को पराजित किया।

4. झारखण्ड में खुर्रम (शाहजहाँ) का राजमहल आगमन

खुर्रम जहाँगीर का पुत्र तथा दक्षिण भारत का मुगल सूबेदार था। खुर्रम ने 1622 ई. में मुगल बादशाह जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा बर्दमान होते हुए राजमहल आ पहुँचा। खुर्रम ने राजमहल क्षेत्र में बंगाल के मुगल सूबेदार इब्राहिम खाँ को एक लड़ाई में मार दिया तथा राजमहल पर अधिकार कर लिया। बाद में मुगल बादशाह से सुलह होने के पश्चात खुर्रम पुनः दक्षिण भारत लौट गया।

झारखण्ड में शाहजहाँ का प्रवेश | Shahjahan’s entry into Jharkhand

झारखण्ड के संदर्भ में शाहजहाँ के शासनकाल का संबंध छोटानागपुर खास के नाग वंश, पलामू के चेरो वंश, सिंहभूम के सिंह वंश तथा अन्य क्षेत्रीय राजवंशों से है।

1. छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 

जहाँगीर की बंदी से मुक्त होकर दुर्जनशाल 1627 ई. में अपनी राजधानी कोकरह आया तथा 1640 ई. तक यहाँ शासन किया। दुर्जनशाल ने सुरक्षा की दृष्टि से अपनी राजधानी कोकरह से दोइसा स्थानांतरित कर दी जो लगभग 100 वर्ष तक नागवंशियों की राजधानी रहा। दुर्जनशाल ने दोइसा में अनेक सुंदर भवनों का निर्माण करवाया जिस पर मुगल स्थापत्य कला का स्पष्ट प्रभाव था। इन भवनों में नवरतनगढ़ नामक महल सर्वाधिक महत्वपूर्ण भवन था। इस भवन में मुगलों से प्रभावित झरोखा दर्शन की भी व्यवस्था थी। दुर्जनशाल की मृत्यु के उपरांत 1640 ई. में रघुनाथ शाह (1640-90 ई.) तक नागवंशी शासक रहा। रघुनाथ शाह के शासनकाल में खानजादा (मुगल सैन्य अधिकारी) ने आक्रमण किया जिसके परिणामस्वरूप रघुनाथ शाह ने मुगल बादशाह को मालगुजारी देना स्वीकार करके संधि कर ली।

2. पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 

शाहजहाँ के शासनकाल के समय पलामू का शासक प्रताप राय (सहबल राय का उत्तराधिकारी) था। यह अत्यंत शक्तिशाली एवं समृद्ध शासक था। 1632 ई. में बिहार के मुगल सुबेदार अब्दुल्ला खाँ ने पलामू क्षेत्र की मालगुजारी को 1,36,000 रूपये कर दिया जिसे देने हेतु प्रताप राय ने लोगों से अधिकाधिक धन वसूलने का प्रयास किया।मुगलों द्वारा मालगुजारी की राशि को निरंतर बढ़ाया जाता रहा जिसके परिणामस्वरूप प्रताप राय ने कर देना ही बंद कर दिया। शाहजहाँ ने शाइस्ता खाँ को बिहार का नया सूबेदार नियुक्त किया तथा पलामू पर अधिकार करने का आदेश दिया। शाइस्ता खाँ ने 1641 में पलामू के चेरो राज्य पर आक्रमण किया। प्रताप राय ने इस आक्रमण के बाद शाइस्ता खाँ से संधि करते हुए 80,000 रूपये देने व पटना में हाजिरी लगाना स्वीकार किया। 80,000 रूपये प्राप्त करके शाइस्ता खाँ 1642 ई. में पटना लौट गया। 1642 ई. में प्रताप राय ने मुगल शासक को वार्षिक मालगुजारी नहीं दिया। 1643 ई. में शाहजहाँ ने इतिकाद खाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया तथा पलामू के शासक के विरूद्ध कार्रवाई करने का आदेश दिया। इतिकाद खाँ ने जबरदस्त खाँ को पलामू पर आक्रमण करने हेतु भेजा। परंतु मुगलों की सेना को पलामू की ओर आता देख प्रताप राय ने संधि करने हेतु प्रस्ताव भेजा। इस प्रस्ताव में प्रताप राय ने 1 लाख रूपये व 1 हाथी देने के अतिरिक्त साथ पटना चलने की स्वीकृति प्रदान की।

इतिकाद खाँ की सिफारिश पर 1644 ई. में शाहजहाँ ने प्रताप राय को 1,000 मनसब प्रदान किया तथा पलामू को उसी के अधिकार में देते हुए 1 करोड़ रूपये की सालाना मालगुजारी तय कर दी। पलामू पर आक्रमण कर प्रताप राय को संधि हेतु विवश करने वाले जबरदस्त खाँ को दो हजारी मनसबदार नियुक्त किया गया। प्रताप राय की मृत्यु के बाद पलामू पर कुछ समय तक भूपाल राय तथा उसके बाद मेदिनी राय का शासन रहा। पुराना पलामू किला का निर्माण प्रताप राय के शासन काल में हुआ था। बाद में मेदिनी राय ने यहाँ पर नया किला का निर्माण कराया था।

3. सिंहभूम का सिंह वंश का प्रवेश 

शाहजहाँ के समय सिंहवंशी शासक उड़ीसा के मुगल सूबेदार के माध्यम से मालगुजारी देते थे।

4. अन्य क्षेत्रीय राजवंश का प्रवेश 

शाहजहाँ के शासनकाल में पंचेत के राजा वीर नारायण सिंह ने मुगलों से पराजित होने के बाद अपनी राजधानी को परिवर्तित कर दिया। 1639 ई. में बंगाल की राजधानी राजमहल थी। यहाँ पर मुगलों का एक टकसाल भी था | औरंगजेब के शासनकाल में बंगाल की राजधानी को राजमहल से परिवर्तित करके ढाका कर दिया गया।

झारखण्ड में शाह शूजा का प्रवेश | Entry of Shah Shuja into Jharkhand

शाह शूजा शाहजहाँ का पुत्र था। यह बंगाल और उड़ीसा का गवर्नर था। इसने भी राजमहल को अपनी राजधानी बनाया था।

झारखण्ड में औरंगजेब का प्रवेश | Aurangzeb’s entry into Jharkhand

झारखण्ड के संदर्भ में औरंगजेब के शासनकाल का संबंध छोटानागपुर खास के नाग वंश, पलामू के चेरो वंश, सिंहभूम के सिंह वंश तथा अन्य क्षेत्रीय राजवंशों से है।

छोटानागपुर खास का नागवंश का प्रवेश 

नागवंशी शासक रघुनाथ शाह (1640-90 ई.) और रामशाह (1690-1715 ई.) औरंगजेब के समकालीन थे। औरंगजेब के शासनकाल में अधिकांश समय तक कोकरा का नागवंशी राजा रघुनाथ शाह था। रघुनाथ शाह का धर्मगुरु ब्रह्मचारि हरिनाथ था। रघुनाथ शाह अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति और दानी स्वभाव का था। रघुनाथ शाह के शासन काल में लक्ष्मीनारायण तिवारी ने मदन मोहन मंदिर (बोड़ेया, राँची) का निर्माण कराया। रघुनाथ शाह के शासनकाल में हरि ब्रह्मचारी ने राँची के चुटिया नामक स्थान पर राम-सीता मंदिर का निर्माण कराया। फ्रांसीसी यात्री टैवरनियर के अनुसार रघुनाथ शाह के राज्य केवल एक बार ही मुगल आक्रमण हुआ जिससे रघुनाथ शाह को अधिक क्षति नहीं हुयी ।

औरंगजेब के शासनकाल में ही पलामू के चेरोवंशी राजा मेदिनी राय ने रघुनाथ शाह की राजधानी दोइसा पर आक्रमण कर व्यापक लूटपाट किया। इस लूटपाट में मेदिनी राय को पत्थर का एक विशाल फाटक प्राप्त हुआ।मेदिनी राय ने पलामू के पुराने किले के समीप एक पहाड़ पर नया किला का निर्माण कराया तथा इसमें दोयसा से प्राप्त पत्थर का विशाल फाटक लगवाया। इस फाटक को नागपुर दरवाजा कहा जाता है। रघुनाथ शाह के बाद रामशाह नागवंश का शासक बना जिसका मुगल बादशाह औरंगजेब के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध था।

1692 ई. में रामशाह ने औरंगजेब को 9,705 रूपये मालगुजारी के रूप में प्रदान किया। रामशाह ने पलामू, रीवा एवं सिंहभूम राज्यों पर आक्रमण किया था। इसने रीवा व सिंहभूम के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया था। रामशाह ने अपने पुत्र ऐनी शाह का विवाह रीवा नरेश की पुत्री से किया तथा अपनी दो बहनों का विवाह सिंहभूम के राजा जगन्नाथ सिंह के साथ किया था।

पलामू का चेरो वंश का प्रवेश 

औरंगजेब के शासन के प्रारंभिक काल में पलामू में चेरो राजा मेदिनी राय का शासन था। मेदिनी राय (1658-74 ई.) सर्वाधिक शक्तिशाली चेरोवंशी शासक था। मेदिनी राय ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने तथा उन्हें कर देने से मना कर दिया था। इसके साथ ही वह सीमावर्ती मुगल राज्यों पर आक्रमण कर लूटपाट भी करता था। औरंगजेब ने अपने सूबेदार दाउद खाँ को 1660 ई. में पलामू पर आक्रमण करने व मेदिनी राय से कर वसूलने हेतु भेजा। 23 अप्रैल, 1660 को दाउद खाँ पटना से चला तथा सबसे पहले दाउद खाँ ने 5 मई, 1660 को कोठी के किले तथा इसके बाद 3 जून, 1660 को कुंडा के किले पर अधिकार कर लिया।

कुंडा के शासक चुनराय ने पराजित होने के बाद इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इससे नाराज होकर मेदिनी राय के कहने पर सुरवर राय (चुनराय के भाई) ने चुनराय की हत्या कर दी। 25 अक्टूबर, 1660 को दाउद खाँ चेरो राज्य की राजधानी की ओर आक्रमण हेतु बढ़ा तथा 3 नवंबर, 1660 को तरहसी पहुँचा। मेदिनी राय ने अपने मंत्री सूरत सिंह के माध्यम से तरहसी पहुँचे दाउद खाँ को संधि का प्रस्ताव भेजा। दाउद खाँ ने संधि के इस प्रस्ताव की सूचना औरंगजेब को भेजी तथा बादशाह का उत्तर आने तक युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इसी बीच पलामू के राजा के कुछ लोगों ने मुगलों के एक काफिले को लूट लिया। इससे नाराज होकर दाउद खाँ पलामू पर आक्रमण करने हेतु राजधानी तक आ गया। मेदिनी राय युद्ध की तैयारी करने लगा। इसी दौरान औरंगजेब ने मेदिनी राय को इस्लाम धर्म स्वीकारने और एक निश्चित दर से कर देने हेतु प्रस्ताव भेजा। इसे स्वीकार करने पर मेदिनी राय को उसके पद पर बने रहने देने का प्रस्ताव था।

मेदिनी राय ने औरंगजेगब का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा युद्ध की घोषणा कर दी। औरंगा नदी के तट पर स्थित नये किले के समीप मुगलों की सेना तथा मेदिनी राय के बीच युद्ध शुरू हो गया। इसमें अंग्रेजो की सेना भारी पड़ी तथा मेदिनी राय की सेना कमजोर पड़ने लगी। मेदिनी राय ने किले से किमती सामान देकर महिलाओं व बच्चों को जंगल में भेज दिया तथा स्वयं नये किले में ही रूक गया। मुगल सेना द्वारा नये किले पर आक्रमण करने के बाद मेदिनी राय भी जंगल की ओर भाग गया। बाद में मेदिनी राय ने सरगुजा में शरण ली थी।

इस प्रकार पुराने व नये किले सहित चेरो राज्य पर मुगलों ने अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद साहसी चेरों ने पुनः देवगन के किले के पास मुगलों से युद्ध किया, परंतु दाउद खाँ के एक सेनापति शेख शफी ने उन्हें पराजित कर इस किले पर भी कब्जा कर लिया। दाउद खाँ ने पलामू पर विजय प्राप्त करने के बाद यहाँ प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करके मनकली खाँ को यहाँ का फौजदार नियुक्त कर दिया तथा स्वयं पटना लौट गया। दाउद खाँ ने पलामू विजय स्मृति में पलामू किला में एक मस्जिद का निर्माण कराया था। दाउद खाँ पटना लौटते समय पलामू किले का ‘सिंह द्वार’ अपने साथ ले गया तथा उसे दाउदनगर की अपनी गढ़ी में लगवा दिया।

इस अभियान की सफलता से खुश होकर मुगल बादशाह औरंगजेब ने दाउद खाँ को पुरस्कार के रूप में 50,000 रूपये की मोतियों की माला दी तथा औरंगाबाद स्थित अमछा, मनोस व गोह नामक स्थान उसके अधीन कर दिया।22 अगस्त, 1966 को पलामू को बिहार के सूबेदार के अधीन करते हुए मनकली खाँ को स्थानांतरित कर दिया गया।

मनकली खाँ के जाने के बाद मेदिनी राय सरगुजा से पुनः पलामू लौट गया तथा अपने राज्य पर अधिकार कर लिया।मेदिनी राय ने अपनी बुद्धिमतापूर्ण नीति के द्वारा शीघ्र ही पलामू राज्य की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर दिया।मेदिनी राय को ‘न्यासी राजा’ की संज्ञा दी जाती है तथा मेदिनी राय के शासनकाल को ‘चेरो शासन का ‘ स्वर्ण युग ‘ की संज्ञा दी जाती है।

1674 ई. में मेदिनी राय की मृत्यु हो गयी जिसके बाद पलामू पर क्रमशः रूद्र राय (1674-80 ई.), दिकपाल राय (1680-97 ई.) एवं साहेब राय (1697-1716 ई.) का शासन रहा।

अन्य क्षेत्रीय राजवंश का प्रवेश 

औरंगजेब के शासनकाल में हजारीबाग क्षेत्र में पाँच प्रमुख राज्य रामगढ़, कुंडा, छै, केंदी एवं खड़गडीहा थे। इनमें रामगढ़ सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। इस समय व इसके बाद (1667-1724 तक) रामगढ़ का राजा दलेल सिंह था। 1670 ई. में दलेल सिंह ने अपनी राजधानी को बादम से हटाकर रामगढ़ में स्थापित कर दी, क्योंकि बादम मुस्लिम आक्रमणकारियों के मार्ग के बीच में स्थित था।

दलेल सिंह ने चाय के शासक मगर खान को पराजित कर उसकी हत्या कर दी थी। रामगढ़ राज्य के उत्तर-पूर्वी भाग में खड़गडीहा अवस्थित था तथा यह हमेशा औरंगजेब के आक्रमण से बचा रहा। कुंडा राज्य की स्थापना औरंगजेब के एक अधिकारी राम सिंह ने की थी। 1669 ई. में औरंगजेब ने राम सिंह को मराठों-पिंडारियों से रक्षा हेतु बाबलतार, पिंभुरी, बरवाडीह व नाग दर्रा की जिम्मेदारी प्रदान की। केंदी राज्य वर्तमान चतरा जिले में स्थित था जिसके पूर्व में छै राज्य अवस्थित था। औरंगजेब द्वारा बंगाल की राजधानी को राजमहल से ढाका स्थानांतरित करने के बाद 1695-96 में मिदनापुर (बंगाल) के शोभा सिंह व उड़ीसा के अफगान रहीम खाँ ने राजमहल क्षेत्र में लूटपाट की तथा इस पर कब्जा कर लिया। 1697 ई. में जबरदस्त खाँ ने इसे पुनः मुक्त कराया। मराठा के आक्रमण के परिणामस्वरूप झारखण्ड पर से मुगलों का प्रभाव समाप्त हो गया। झारखण्ड में धनबाद एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जो मुस्लिम आक्रमणों से पूर्णतः बचा रहा था।

अन्य तथ्य

◕ पाल शासकों के काल में झारखण्ड में बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का विस्तार हुआ।

◕ उड़ीसा के राजा नरसिंहदेव द्वितीय ने 12वीं सदी में स्वयं को झारखण्ड का राजा घोषित कर दिया।

◕ गुलाम वंश के समय झारखण्ड की सीमा में मुस्लिम सेनाओं की छावनियाँ स्थापित की गयी थी।

◕ इल्तुतमिश तथा बलबन के शासनकाल में झारखण्ड गुलाम वंश के प्रभाव से मुक्त रहा था।

◕ इल्तुतमिश तथा बलबन के समय झारखण्ड में शक्तिशाली नागवंशी राजा हरि कर्ण का शासन था।

◕ कोकरह के नागवंशी शासकों को मुगलकालीन ग्रंथों में ‘जमींदार-ए-खाँ-अलामा’ (हीरों के खान का मालिक) से संबोधित किया गया है।

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By Akashdeep Kumar Student
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