आज हम ( Most Popular temples in Jharkhand ) झारखंड के प्रमुख मंदिरों के बारे में जानेंगे। झारखंड का इतिहास बहुत पुराना है, और इसी कारण यहां कई प्राचीन मंदिर हैं जो आज भी विद्यमान हैं। चाहे आप झारखंड के किसी भी हिस्से में हों, अगर आप अपने आस-पास नजर दौड़ाएंगे, तो निश्चित रूप से आपको कोई ना कोई प्राचीन मंदिर देखने को मिल जाएगा। इस पोस्ट में, मैंने झारखंड के कुछ सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध मंदिरों के बारे में जानकारी दी है। आइए, इन मंदिरों की अद्भुत और रहस्यमयी दुनिया में एक यात्रा पर चलें-
वैद्यनाथ मंदिर / बैजनाथ मंदिर – Baidyanath Temple
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यह मंदिर देवघर में अवस्थिति है।
विशेषता – धार्मिक ग्रंथों के अनुसार बैजनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग रावण के द्वारा स्थापित किया गया था। गिद्धौर राजवंश के 10वें राजा पूरणमल द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण 1514-1515 ई. के बीच कराया गया था।गिद्धौर वंश के ही राजा चंद्रमौलेश्वर सिंह ने मंदिर के गुंबद पर स्वर्णकलश स्थापित कराया था। यह भारत के 51 शक्तिपीठों में से एक है। शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में मनोकामना लिंग यहाँ स्थित है। इस मंदिर में ज्योतिर्लिंग व शक्तिपीठ एक साथ है। इस मंदिर के प्रांगण में कुल 22 मंदिर हैं। यहाँ शिव मंदिर के शिखर पर त्रिशूल के स्थान पर एक पंचशूल स्थापित है। तथा ऐसी विशेषता वाला यह देश का एकमात्र शिव मंदिर है। पुराणों में इस मंदिर को अंतिम संस्कार हेतु उपयुक्त स्थान माना गया है।
तपोवन मंदिर – Tapovan Mandir
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यह मंदिर देवघर में अवस्थिति है।
विशेषता – भगवान शिव के इस मंदिर में अनेक गुफाएँ हैं जिसमें ब्रह्मचारी लोग निवास करते हैं। मान्यता है कि यहां सीता जी ने तपस्या की थी।
युगल मंदिर – Yugal Mandir
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यह मंदिर देवघर में अवस्थिति है।
विशेषता – यह मंदिर देवघर में अवस्थिति है। इसे नौलखा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस मंदिर के निर्माण में ₹9 लाख की लागत आई थी। मंदिर के निर्माण हेतु रानी चारूशीला ने ₹9 लाख दान दिये थे। इस मंदिर का निर्माण तपस्वी बालानंद ब्रह्मचारी के अनुयायी ने कराया था। इस मंदिर का निर्माण 1936 में शुरू हुआ तथा यह 1948 तक चला। इस मंदिर की बनावट बेलूर के रामकृष्ण मंदिर की भांति है। इस मंदिर की ऊँचाई 146 फीट है।
पथरौल काली मंदिर – Pathraul Kali Mandir
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यह मंदिर देवघर में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर का निर्माण पथरौल राज्य के राजा दिग्विजय सिंह ने कराया था। इस मंदिर में माँ काली की प्रतिमा स्थापित है, जो माँ दक्षिण काली के नाम से भी प्रसिद्ध है। दीपावली के अवसर पर यहाँ एक बड़े मेले का आयोजन होता है।
बासुकीनाथ धाम – Basukinath Dham
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यह मंदिर जरमुंडी (दुमका) में अवस्थिति है।
विशेषता – इसका निर्माण वसाकी तांती (हरिजन जाति) ने कराया था। बासुकीनाथ की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी हुयी है। समुद्र मंथन में मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकीनाथ को रस्सी बनाया गया था। यह मंदिर लगभग 150 वर्ष पुराना है तथा शिवरात्रि अवसर पर यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इस मंदिर में मनोकामना पूरा करने हेतु श्रद्धालुओं द्वारा धरना देने की परंपरा है।
मौलीक्षा मंदिर – Mauliksha Mandir
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यह मंदिर दुमका में अवस्थिति है।
विशेषता – इसका निर्माण 17वीं शताब्दी में ननकर राजा बसंत राय द्वारा कराया गया था। इस मंदिर के गर्भगृह में माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित है, जिसका निर्माण लाल पत्थर से किया गया है। यह प्रतिमा पूर्ण नहीं है, बल्कि केवल मस्तक है। यही कारण है कि इसे मौलीक्षा (माली-मस्तक, इक्षा-दर्शन) मंदिर कहा जाता है। मौलीक्षा देवी के दाँयी तरफ भैरव की भी प्रतिमा स्थापित है, जो बालुका पत्थर से निर्मित है तथा मौलीक्षा देवी के आगे काले पत्थर से निर्मित एक शिवलिंग है। ननकर राजा मौलीक्षा देवी (दुर्गा) को अपना कुल देवी मानते थे। इस मंदिर का निर्माण बांग्ला शैली में किया गया है। यह मंदिर तांत्रिक सिद्धि का केन्द्र रहा है।
झारखण्ड धाम मंदिर – Jharkhand Dham Mandir
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यह मंदिर गिरिडीह जिले, में धनवार के पास स्थित है ।
विशेषता – झारखंड धाम ( झारखंडी के नाम से भी जाना जाता है) भगवान शिव का एक मंदिर और महत्वपूर्ण तीर्थ केंद्र है | महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां शिव भक्तों की भीड़ उमड़ती है । हर साल श्रावण मास (हिंदू महीने यानी ज्यादातर जुलाई से अगस्त के कुछ भाग) में शिव भक्तों का मेला लगता है । ऐसा माना जाता है कि अगर हम भगवान शिव पर गंगा जल (जल) डालते हैं तो और अधिक आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है । साथ ही कई लोग हर सोमवार और हर हिंदू महीने की पूर्णिमा के दिन ( पूर्णिमा ) में पूजा करने आते हैं ।
मां योगिनी मंदिर – Maa Yogini Mandir
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यह मंदिर बाराकोपा पहाड़ी (गोड्डा) में अवस्थिति है।
विशेषता – मान्यता है कि यहाँ माँ सती जी की दाहिनी जांघ गिरी थी जिसकी आकृति प्रस्तर अंश यहाँ स्थापित है। कामाख्या मंदिर की ही भांति यहाँ पिंड की पूजा की जाती है तथा इस मंदिर में लाल रंग के वस्त्र चढ़ाने की प्रथा है। इस मंदिर का निर्माण चारूशीला देवी ने कराया था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस मंदिर की चर्चा महाभारत में ‘गुप्त योगिनी’ के नाम से की गयी है तथा पांडवों ने अपने अज्ञात वर्ष के कुछ समय यहाँ भी व्यतीत किये थे।
छिन्नमस्तिका मंदिर – Chhinnamastika Mandir
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यह मंदिर रजरप्पा (रामगढ़) में अवस्थिति है।
विशेषता – यह दामोदर तथा भैरवी (भेरा/भेड़ा) नदी के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में माँ काली की धड़ से अलग सर वाली मूर्ति प्रतिष्ठापित होने के कारण इसे छिन्नमस्तिका कहा जाता है। माँ काली का यह छिन्न मस्तक चंचलता का प्रतीक है। यहाँ देवी के दांये डाकिनी और बांये शाकिनी विराजमान हैं तथा देवी के पैरों के नीचे रति-कामदेव विराजमान हैं जो कामनाओं के दमन का प्रतीक है। एक किवदंती के अनुसार भगवान शिव के नृत्य के दौरान यहाँ सती का एक अंग गिरा था तथा पुराणों के अनुसार जिन-जिन स्थानों पर सती के अंग, वस्त्र या आभूषण गिरे वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार भारत के प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में यह भी शामिल है। इस स्थान का प्रयोग तांत्रिक अपनी तंत्र साधना हेतु करते हैं। इस मंदिर में प्रतिष्ठापित माँ काली की प्रतिमा शक्ति के उग्र रूप का प्रतिनिधित्व करती है। 1947 ई. तक यह मंदिर वनों से घिरा था जिसके कारण इसका नाम ‘वन दुर्गा मंदिर’ भी पड़ गया। यहाँ शारदीय दुर्गा उत्सव के अवसर पर सर्वप्रथम संथाल आदिवासियों द्वारा माँ की महानवमी पूजा की जाती है तथा इन्हीं के द्वारा बकरे की पहली बलि दी जाती है। यह कामाख्या मंदिर की शिल्पकला से प्रभावित है। इस मंदिर को रामगढ़ के राजाओं द्वारा पर्याप्त संरक्षण मिला तथा इस मंदिर के निकट दक्षिणेश्वर मंदिर के आसपास के गाँवों से लाकर तांत्रिक पुजारियों को बसाने का श्रेय इन्हीं को जाता है।
कैथा शिव मंदिर – Kaitha Shiv Mandir
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यह मंदिर रामगढ़ में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर का निर्माण 17वीं सदी में रामगढ़ के राजपरिवार दलेर सिंह द्वारा करवाया गया था। इस मंदिर के निर्माण में मुगल, राजपूत तथा बंगाल स्थापत्य कला का मिश्रण है। इस मंदिर का उपयोग सैन्य उद्देश्य से किया जाता था।भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा इस मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया गया है।
शिव मंदिर – Shiv Mandir
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यह मंदिर बादम गाँव ( हजारीबाग ) में अवस्थिति है।
विशेषता – हजारीबाग के बादमगाँव में स्थित बादम पहाड़ियों में भगवान शिव के चार गुफा इन मंदिरों का निर्माण 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में किया गया था।
माता चंचला देवी – Mata Chanchala Devi Mandir
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यह मंदिर कोडरमा में अवस्थिति है।
विशेषता – यह एक शक्तिपीठ है जो कोडरमा-गिरिडीह मार्ग पर स्थित चंचला देवी पहाड़ी पर स्थित है। चंचला देवी, माँ दुर्गा का ही रूप हैं। इस मंदिर में सिंदूर का प्रयोग पूर्णतः वर्जित है।
वंशीधर मंदिर – Vanshidhar Mandir
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यह मंदिर नगर ऊंटारी (गढ़वा) में अवस्थिति है।
विशेषता – यह मंदिर 1885 ई. में निर्मित किया गया था। इस मंदिर में अष्टधातु से निर्मित राधा-कृष्ण की मूर्ति प्रतिष्ठापित है जिसका वजन 32 मन तथा ऊँचाई 4 फुट है। इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा में कमल पुष्प पीठिका पर खड़ी मूर्ति है।
दशशीश महादेव मंदिर – Dasshish Mahadev Mandir
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यह मंदिर जपला (पलामू) में अवस्थिति है।
विशेषता – किवदंती के अनुसार लंका के राजा रावण ने हिमालय पर्वत से शिवलिंग ले जाते समय यहाँ पर रखा था, जिसे वह बाद में उठा नहीं सका।
उग्रतारा मंदिर / नगर मंदिर – Ugrtara Mandir / Nagar Mandir
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यह मंदिर चंदवा (लातेहार) में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर में एक ही स्थान पर काली कुल की देवी उग्रतारा और श्रीकुल की देवी लक्ष्मी स्थापित हैं। इस मंदिर के प्रांगण में कुछ बौद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। यह मंदिर एक सिद्ध तंत्रपीठ के रूप में विख्यात है। यद्यपि इस मंदिर के निर्माण को लेकर कोई प्रामाणिक जानकारी प्राप्त नहीं हुयी है, परन्तु पलामू गजेटियर के अनुसार इस मंदिर का निर्माण मराठों के विजय स्मारक के रूप में अहिल्याबाई ने कराया था।
भद्रकाली मंदिर – Bhadrakali Mandir
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यह मंदिर इटखोरी का भदुली गांव (चतरा) में अवस्थिति है।
विशेषता – भद्रकाली की मूर्ति शक्ति के तीन रूपों (सौम्य, उग्र तथा काम) में से सौम्य रूप का प्रतिनिधित्व करती है। यहाँ कमल के आसन पर खड़ी वरदायिनी मुद्रा में माँ भद्रकाली की प्रतिमा है। इस प्रतिमा को बौद्ध धर्म के लोग ‘तारा देवी’ की प्रतिमा मानते हैं। यहाँ माँ भद्रकाली की प्रतिमा के नीचे पाली लिपि में लिखा हुआ है कि बंगाल के शासक राजा महेन्द्र पाल द्वितीयं द्वारा इस प्रतिमा का निर्माण किया गया है।
इस मंदिर का निर्माण बालुका पत्थर के एक ही शिलाखंड को तराश कर किया गया है।इस मंदिर का निर्माण पाँचवी-छठी शताब्दी में पाल काल में किया गया था। इस मंदिर में 1008 छोटे-छोटे शिवलिंग उकेरे गए हैं। इस मंदिर के बाहर कोठेश्वरनाथ स्तूप अवस्थित है। इसे मनौती स्पूप भी कहा जाता है। स्तूप के नीचे भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण मुद्रा में एक प्रतिमा उत्कीर्ण है। स्तूप के ऊपरी भाग में चार इंच लंबा, चौड़ा व गहरा एक गड्ढा है, जिसमें हमेशा पानी भरा रहता है।
कौलेश्वरी मंदिर – Kauleshwari Mandir
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यह मंदिर कोल्हुआ पहाड़ (चतरा) में अवस्थिति है।
विशेषता – कोल्हुआ पहाड़ हिन्दु, बौद्ध तथा जैन धर्मो का संगम स्थल है। यह पहाड़ जैन धर्म के 10वें तीर्थंकर शीतलनाथ की तपोभूमि व जिनसेन (जैन महापुराण के रचनाकार) का साधना स्थल माना जाता है। कोल्हुआ पहाड़ पर भगवान बुद्ध की ध्यानमग्न मुद्रा में प्रतिमाएँ स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव व पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। इस मंदिर की ऊँचाई लगभग 1575 फीट है जिसमें माँ कौलेश्वरी (दुर्गा) की मूर्ति स्थापित है, जिसे काले पत्थर को तराशकर बनाया गया है।
सहस्त्रबुद्ध ( कांटेश्वरनाथ ) – Sahastrabuddha (Kanteshwarnath)
यह मंदिर इटखोरी (चतरा) में अवस्थिति है।
विशेषता – इटखोरी के बौद्ध धर्म का स्थान होने के कारण जब वज्रयान मत की स्थापना हुई, तब भद्रकाली की पूजा अर्चना शुरू हुई। मंदिर सिद्ध स्थल माना जाने लगा। बुद्ध धर्म का प्रभाव कम होने पर हिन्दू भद्रकाली को शक्ति के रूप में पूजने लगे। धीरे धीरे इटखोरी पर्यटक स्थल में तब्दील हो गया। इटखोरी में भद्रकाली मंदिर के निकट सहस्त्र शिव लिंग एवं सहस्त्र बुद्ध प्रतिमा वाले स्तूप आकर्षण के मुख्य केंद्र हैं। इटखोरी के पुरातात्विक संग्रहालय में पाल कालीन हिन्दू एवं बुद्ध की मूर्तियां इटखोरी के महत्व को दर्शाती है। यहां के मनोरम दृश्य लोगों को बरबस खींचते हैं।
टाँगीनाथ धाम मंदिर – Tanginath Dham Mandir
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यह मंदिर गुमला में अवस्थिति है।
विशेषता – यह मंदिर गुमला के मंझगांव पहाड़ी पर स्थित है। इस मंदिर के अंदर एक विशाल शिवलिंग के अलावा आठ अन्य शिवलिंग हैं। यहाँ शिवलिंग के अलावा माँ दुर्गा, लक्ष्मी, भगवती, गणेश, हनुमान आदि की प्रतिमाएँ हैं। इस मंदिर के पास एक अष्टकोणीय खंडित त्रिशूल अवस्थित है, जिसकी भूमि से ऊँचाई लगभग 11 फीट है। इतिहासकार इसे 5वीं-6ठी सदी का मानते हैं।इस मंदिर का निर्माण पूर्व मध्यकाल में हुआ था। इस स्थान का संबंध परशुराम से जोड़कर देखा जाता है। एक मान्यता के अनुसार यहाँ आज भी परशुराम का पदचिन्ह् मौजूद है तथा यहाँ परशुराम द्वारा प्रयुक्त फरसा (टाँगी) गड़ा हुआ है। इस स्थान का संबंध पाशुपत संप्रदाय से है।
वासुदेवराय मंदिर – Vasudevaraya Mandir
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यह मंदिर कोराम्बे ग्राम (गुमला) में अवस्थिति है।
विशेषता – यहाँ काले पत्थरों से निर्मित वासुदेवराय की प्रतिमा स्थित है। नागवंशावली के अनुसार नागवंशियों ने पलामू के रक्सेलों को पराजित करके प्राप्त की थी। 1463 ई. में इस मूर्ति की विधिवत् स्थापना राजा प्रताप कर्ण के द्वारा की गयी थी। एक अन्य किवदंती के अनुसार यह मूर्ति खेत जोतते समय घुमा मुण्डा (सहियाना ग्राम निवासी) को मिली थी। यहाँ रक्सेल एवं नागवंशियों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। अतः इस स्थान को हल्दीघाटी तथा यहाँ स्थापित मंदिर को ‘हल्दीघाटी मंदिर’ भी कहते हैं।
महामाया मंदिर – Mahamaya Mandir
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यह मंदिर हापामुनी गाँव ( गुमला ) में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर का निर्माण नागवंशी शासक गजघंट राय ने 908 ई. में कराया था। इस मंदिर में काली माँ की मूर्ति स्थापित है, जो एक तांत्रिक पीठ है। इस मंदिर के प्रथम पुरोहित द्विज हरिनाथ (मराठा ब्राह्मण) थे। सियानाथ देव के द्वारा इसमें विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गयी थी। 1831 के कोल विद्रोह के दौरान इस मंदिर में तोड़फोड़ हो गयी थी जिसे बाद में पुनर्निमित कर दिया गया। चैत्र पूर्णिमा के दिन इस मंदिर में मंडा पूजा (शिव की पूजा) की जाती तथा यहाँ मंडा मेला का आयोजन किया जाता है। मंडा पूजा के दौरान भोगता आग पर नंगे पाँव चलते हैं जिसे स्थानीय भाषा में ‘फूलखूँदी’ कहा जाता है।
अंजन धाम मंदिर – Anjan Dham Mandir
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यह मंदिर अंजन ग्राम ( गुमला ) में अवस्थिति है।
विशेषता – इसे हुनमान जी का जन्म स्थान माना जाता है। यहाँ देवी अंजना की प्रस्तर-मूर्ति स्थापित है। यहाँ पर चक्रधारी मंदिर एवं नकटी देवी का मंदिर भी स्थित है। चक्रधारी मंदिर में शिवलिंग के ऊपर भारी पत्थर से बना एक चक्र स्थित है, जिसके बीच में एक छिद्र है। इस मंदिर के तीन ओर नेतरहाट पहाड़ी का विस्तार है जबकि इसके दक्षिण में खरवा नदी का अपवाह है।
कपिलनाथ मंदिर – Kapilnath Mandir
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यह मंदिर दोइसानगर ( गुमला ) में अवस्थिति है।
विशेषता – 1710 ई. में इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामशाह ने अपनी राजधानी दोइसा में कराया था। यह मंदिर दोइसा के प्रस्तर स्थापत्य कला का सबसे बेहतरीन नमूना है।
जगन्नाथ मंदिर – Jagannath Mandir
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यह मंदिर जगन्नाथपुर ( राँची ) में अवस्थिति है।
विशेषता -इसका निर्माण 25 दिसंबर, 1691 ई. * में ठाकुर ऐनी शाह * (नागवंशी राजा रामशाह के चौथे पुत्र) ने करवाया था। इस मंदिर में जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित हैं। इन प्रतिमाओं के पास धातु से निर्मित वंशीधर की मूर्तियाँ भी हैं, जिसे नागवंशी राजा द्वारा विजयचिह्न के रूप में मराठाओं से प्राप्त किया गया था। यह मंदिर पुरी (उड़ीसा) के जगन्नाथ मंदिर से मेल खाता है। रथयात्रा के अवसर पर यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इस मंदिर की ऊँचाई लगभग 100 फीट है। इस मंदिर के वर्तमान रूप का निर्माण 1991 ई. में 1 करोड़ रूपये की लागत से कराया गया था।
सूर्य मंदिर – Surya Mandir
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यह मंदिर बुण्डू ( राँची ) में अवस्थिति है।
विशेषता – यह मंदिर राँची-टाटा राजमार्ग पर अवस्थित है। इस मंदिर की खूबसूरती के कारण इसे ‘पत्थर पर लिखी कविता’ की संज्ञा दी जाती है। इस मंदिर को सूर्य के रथ की आकृति में निर्मित किया गया है। इस मंदिर का निर्माण राँची की एक संस्था ‘संस्कृति विहार’ ने कराया था तथा इसके शिल्पकार एस. आर. एन. कालिया थे।
देउड़ी मंदिर – Dewri Mandir
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यह मंदिर तमाड़, राँची में अवस्थिति है।
विशेषता -यहाँ 16 भुजी माँ दुर्गा की मूर्ति स्थापित है, जो काले रंग के प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है। यहाँ माँ दुगा शेर पर विराजमान न होकर कमल पर विराजमान (कमलासन) हैं। दुर्गा की मूर्ति के ऊपर शिव की मूर्ति तथा इसके ऊपर बेताल की मूर्ति है। अगल-बगल में सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिक व गणेश की मूर्तियाँ भी हैं। परंपरागत रूप से यहाँ 6 दिन पाहन (आदिवासी) व एक दिन ब्राह्मण पुजारी के द्वारा पूजा किया जाता है। इस प्रकार आदिवासी एवं ब्राह्मण दोनों के द्वारा पूजा कराया जाना इस मंदिर की अनोखी विशेषता है। दशहरा के अवसर पर इस मंदिर में बली देने की प्रथा है। इस मंदिर का निर्माण सिंहभूम के केड़ा के एक जनजातीय प्रमुख द्वारा कराया गया था। इस मंदिर का निर्माण प्रस्तर खण्डों से किया गया है तथा यह चतुर्भुजाकार है।
मदन मोहन मंदिर – Madan Mohan Mandir
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यह मंदिर बोड़ेया ( कांके, राँची ) में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर का निर्माण 1665 ई. (विक्रम संवत् 1722) में प्रारंभ किया गया था, जो 1668 ई. में बनकर तैयार हो गया। मंदिर की चारदीवारी, चबूतरे आदि के निर्माण में कुल 14 वर्ष और लगे तथा 1682 ई. में यह तैयार हो गया। (Source – मंदिर का शिलालेख) मंदिर के चारों ओर पत्थरों को तराश कर चबूतरे का निर्माण किया गया है। मुख्य मंदिर के छत पर 40 फीट ऊँचा गोल शिखर है, जिस पर लोहे का एक चक्र है तथा इस चक्र पर त्रिशूल है। 1665 ई. में राजा रघुनाथ शाह की उपस्थिति में लक्ष्मीनारायण तिवारी द्वारा वैशाख शुक्ल पक्ष दशमी को इस मंदिर का शिलान्यास किया गया। लक्ष्मीनारायण तिवारी ने ही इस मंदिर का निर्माण कराया था। इसके निर्माण में लगभग 14,001 रूपये की लागत आयी थी। इस मंदिर का निर्माण ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है, जिसके कारण यह मंदिर लाल दिखाई पड़ता था। परंतु बाद में इस पर सफेद रंग की पुताई कर दी गयी। इस मंदिर के शिल्पकार का नाम अनिरूद्ध था।इस मंदिर में सिंहासन पर राधाकृष्ण की अष्टधातु की प्रतिमा स्थापित है। अतः इसे राधाकृष्ण मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर में राम-सीता व लक्ष्यण की प्रतिमा भी स्थापित की गयी है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर इस मंदिर में विशेष आयोजन किया जाता है, जबकि प्रत्येक पूर्णिमा को यहां सत्यनारायण की पूजा की जाती है। इस मंदिर के दक्षिणी द्वारा के सामने एक बड़ा चबूतरा है, जहाँ होली के अवसर पर ‘फडगोल’ खेला जाता है। इस दौरान चबूतरे पर भगवान कृष्ण की मूर्ति को लाकर श्रद्धालु उन्हें अबीर-गुलाल लगाते हैं। इस मंदिर के गर्भगृह में मंदिर के पुजारी के अलावा किसी का भी प्रवेश निषेध है।
पहाड़ी मंदिर – Pahari Mandir
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यह मंदिर राँची में अवस्थिति है।
विशेषता – यह मंदिर राँची में स्थित टुंगरी पहाड़ी (वास्तविक नाम – राँची बुरू) पर स्थित है। 1905 ई. के आस-पास इस पहाड़ी के शिखर पर शिव मंदिर का निर्माण (संभवतः पालकोट के राजा द्वारा) किया गया था। पहाड़ी पर स्थित इस शिव मंदिर के पास नाग देवता का भी एक मंदिर है जिसमें नाग देवता (राँची के नगर देवता) की पूजा-अर्चना की जाती है। इस मंदिर में श्रावण माह तथा महाशिवरात्रि के दिन अत्यंत भीड़ होती है। श्रावण माह के दौरान प्रत्येक सोमवार को श्रद्धालु मंदिर से 12 किमी. दूर स्थित स्वर्णरेखा नदी से जल लेकर इस मंदिर में चढ़ाते हैं। स्वतंत्रता पूर्व इस पहाड़ी का प्रयोग अंग्रेजों द्वारा फांसी देने हेतु किया जाता था। मंदिर के समीप इस पहाड़ी पर 15 अगस्त, 1947 से प्रत्येक स्वतंत्रता दिवसएवं गणतंत्र दिवस को तिरंगा फहराया जाता है। इस पहाड़ी की ऊँचाई 300 फीट है तथा इसमें 468 सीढ़ियाँ बनी हैं। यह पहाड़ी लगभग 4500 मिलियन वर्ष पूर्व ‘प्रोटेरोजोइक काल’ का है, जो हिमालय पर्वत से भी प्राचीन है। इस पहाड़ के चट्टान का भौगोलिक नाम ‘गानेटिफेरस सिलेमेनाई शिष्ट’ है तथा इसे ‘खोंडालाइट’ नाम से जाना जाता है।
राम-सीता मंदिर ( राधावल्लभ मंदिर ) – Ram-Sita Mandir
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यह मंदिर चुटिया ( राँची ) में अवस्थिति है।
विशेषता – नागवंशी राजा रघुनाथ शाह ने 1685 ई. में इस मंदिर का निर्माण कराया था तथा ब्रह्मचारी हरिनाथ (मराठा ब्राह्मण) को इसका पुजारी नियुक्त किया। इस मंदिर का निर्माण पत्थरों को तराशकर किया गया है। यह मंदिर पूर्व में राधावल्लभ मंदिर था। इसका प्रमाण मंदिर के ऊपरी मंजिल में कृष्ण की रासलीला करती मूर्ति से मिलता है। 28 जनवरी, 1898 ई. को ‘मुण्डा उलगुलान’ के दौरान बिरसा मुण्डा ने अपने अनुयायियों के साथ इस मंदिर की यात्रा की थी।
आम्रेश्वर धाम – Aamreshwar Dham
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यह मंदिर खूँटी जिला में अवस्थिति है।
विशेषता – यहाँ भगवान शिव का मंदिर निर्मित है, जिसे ‘अंगराबारी’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका ‘अंगराबारी’ के रूप में नामकरण स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा किया गया है। इस मंदिर में भगवान शंकर के अतिरिक्त राम-सीता, हनुमान एवं गणेश की मूर्ति भी स्थापित है। भगवान शिव की मुख्य मूर्ति एक बरगद के वृक्ष के नीचे स्थापित है।
लिल्लोरी मंदिर – Lillory Mandir
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यह मंदिर धनबाद में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर में माँ काली की प्रतिमा की स्थापना लगभग 800 वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के रीवा के राजघराने से संबंधित कतरासगढ़ के राजा सुजन सिंह ने की थी। इस मंदिर में प्रतिदिन पशुबलि दी जाती है तथा यहाँ पहली पूजा राज परिवार के सदस्य द्वारा ही की जाती है।
रंकिनी मंदिर – Rankini Mandir
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यह मंदिर घाटशिला ( पूर्वी सिंहभूम ) में अवस्थिति है।
विशेषता – इस मंदिर का निर्माण महुलिया पहाड़ी पर किया गया था, जहाँ नर बलि की प्रथा देने का प्रचलन था। नर बलि की प्रथा को रोक लगाने हेतु इस मंदिर को महुलिया थाना परिसर में पुर्नस्थापित कर दिया गया। इस मंदिर में रंकिनी देवी की पूजा की जाती है जो ढाल राजाओं की कुल देवी का नाम है।
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